Tuesday, February 10, 2009

दर्द की नज़्म है खुदा के लिए

उसका कोई दावा नहीं
दुनिया को बदलने का
या बेहतर बनाने का
वह ईश्वर का संदेश लेकर नहीं आया
न ही बनना चाहता है
उसका स्वघोषित दल्ला
उसके प्रयोजन और चिंतन का आकार
उसके मस्तिष्क जितना छोटा है
फ़िर भी उसे यकीन है
धरती पर खींचीं लकीरें मिट जाएंगी
और धर्म-आत्माएं खटखटा सकेंगी
एक-दूसरे का दरवाज़ा


दर्द की नज़्म है "खुदा के लिए" और उम्मीद का टिमटिमाता दीया भी। अगर गौरव हमारा साझा है, इतिहास हमारा साझा है तो दर्द भी हमारे जुदा नहीं हैं और आशा भी हमारी एक ही है। जो रास्ते वर्तमान हमारे लिए खोले बैठा है उसपर बढ़ना हमारी नियति है। उस रास्ते को हम अतीत में बैठकर बंद नहीं कर सकते। सहनशीलता नहीं तो तुम वर्तमान के हक़दार नहीं, उन सुविधाओं के हक़दार नहीं जो वर्तमान तुम्हें दे रहा है। तो लौट जाओ उसी अतीत में जो तुम्हें सुनहरा दिखता है और देखो, कोशिश कर देखो कि क्या तुम वहां रह पाते हो? सम्भव है उस दौर के लोग तुमसे भी ज़्यादा कट्टर हों और यह भी हो सकता है कि वे तुमसे ज़्यादा उदार हों। अगर वे लोग तुम्हारे जैसे नहीं हुए तो क्या करोगे? कैसे रहोगे उस युग में भी? क्या उससे भी पीछे लौट जाओगे या वापस वर्तमान में शरण ले लोगे? वर्तमान में भी क्या करोगे क्योंकि तुम्हारी आस्था तो टूट चुकी होगी और तुम कट्टर बगैर आस्था के जिंदा भी नहीं रह सकतेधर्म तो मरहम था जिसकी तुम्हें लत लग गई है। तुम्हारे ईश्वर के संदेशवाहक और अवतार तो सिर्फ़ तुम्हारे घावों को सहलाने आए थे और तुमने उनके नामों के दवाखाने खोल दिए जहाँ तुम ज़हर का सौदा कर रहे हो।


"खुदा के लिए" आतंकवाद को एक आम पाकिस्तानी के परिपेक्ष्य से देखने का प्रयास है। यह कोशिश इसलिए अहम् है क्योंकि जब दुनिया आतंकवाद के बारे में सोच रही होती है तो उसके केन्द्र में पाकिस्तान और पाकिस्तानी होते हैं। ऐसे पाकिस्तान और पाकिस्तानी-विरोधी माहौल में वहां के बाशिंदों का क्या रवैया है यह बताने के लिए "खुदा के लिए" ज़मीन तैयार करती है। सरसरी तौर पर ग्रे दिखने वाले चरित्र दरअसल ग्रे ही हों ज़रूरी नहीं। दुविधा ग़लत विचारधारा या मात्र एक ग़लत कदम से भी पैदा हो जाती है। घर पर बैठकर हमें आतंकवाद की समस्या पर रोने की सुविधा है और आरोपी ठान लेने की भी सुविधा है। इस ओर कम ही सोचा जाता है कि क्या वे सभी दोषी हैं जिन्हें हम अपराधी करार दे रहे हैं। यह फ़िल्म एक सेतु बनाती है, जो सीमा के उस पार हैं और जो सीमा के इस पार, उनके बीच और यह सेतु दिल्ली या इस्लामाबाद से होकर नहीं जाता इसलिए सीधा-सीधा संवाद की गुंजाइश बनाता है। दुनिया में सभी जगह रेडिकल मानसिकता वाले लोग हैं और सभी जगह उदारवादी। क्या हमारा काम सिर्फ़ यह याद रखना नहीं है कि शत्रु भी अगर उदार है तो संवाद और समाधान दोनों ही सम्भव है? यह फ़िल्म देखकर कम से कम उम्मीद तो जगती है कि उस ओर भी ऐसे लोग बहुतायत में हैं जो आतंकवाद और उससे जुडी तमाम समस्याओं को उन्हीं आखों से देखते हैं जिनसे हम।