Friday, March 20, 2009

फिराक जरूर देखी जाना चाहिए



मेरी औरत मुझसे पहले ही जला दी गई
वह मुझे बचाने के लिए खड़ी थी मेरे आगे
और मेरे बच्चों का मारा जाना तो पता ही नहीं चला
वे इतने छोटे थे उनकी कोई चीख भी सुनाई नहीं दी
मेरे हाथों में जो हुनर था पता नहीं उसका क्या हुआ
वे अब सिर्फ जले हुए ढांचे हैं एक जली हुई देह पर चिपके हुए
........
मेरे जीवित होने का कोई बड़ा मकसद नहीं था
और मुझे मारा गया इस तरह जैसे मुझे मारना कोई बड़ा मकसद हो...
(मंगलेश डबराल की कविता गुजरात के मृतक का बयान का एक अंश)


एक ऐसे समय में जब एक साझा विरासत में सांप्रदायिक दंगों और तनावों के बीच मानवीय रिश्ते लगातार दरक रहे हों और उनमें दूरियां बढ़ रही हों, लोगों को मारा जाना एक मकसद में बदल गया हो, दंगों की खौफनाक यादें पीछा करती हई वर्तमान जीवन को तनावग्रस्त बनाए रखती हों, आशंकाएं और भय हर किसी की दहलीज और खिड़कियों पर घात लगाएं बैठे हों तब हिंसा के खिलाफ एक फिल्म इस मकसद से बनाई जाती है कि वह यह बता सके कि हिंसा का असर कहां-कहां और किन स्तरों पर लोगों का जीवन तबाह कर देता है। इस तरह यह हिंसा के खिलाफ कलात्मक ढंस से आवाज उठाती है। फिल्म फिराक यही संदेश देती है। इसकी सहायक निर्देशिका हैं इंदौर की प्रतिभाशाली युवा कांचन मराठे। वे अभिनेत्री-निर्देशिका नंदिता दास की इस फिल्म के कला पक्ष से गहरे जुड़ी रहीं।
वे कहती हैं कि यह फिल्म सांप्रदायिक दंगों की हिंसा को सीधे-सीधे नहीं बताती बल्कि ज्यादा गहरे स्तर पर हिंसा के असर को दिखाने की कोशिश करती है। यह फिल्म पांच अलग-अलग आर्थिक स्तरों वाले परिवार की कहानी को मनोवैज्ञानिक ढंग से कहती है। यानी दंगों के बाद लोगों में कैसे डर बैठ जाता है, उनके फैसले कैसे प्रभावित होते हैं और उनमें किस तरह की आशंकाएं उठने लगती हैं, इन तमाम बातों को फिल्म बिना चीखे-चिल्लाए विचलित कर देने वाले ढंग से फिल्माती है। इसके लिए जरूरी था कि घरों, दरवाजे -खिड़कियां, दीवारें, उनका रंग और यहां तक कि दीवारों पर लगे स्विच बोर्ड्स तक का ध्यान रखना था। मैंने इसी बात को ध्यान में रखते हुए कला निर्देशक गौतम सेन की इस रचनात्मक स्तर पर मदद की। जाहिर है इससे फिल्म के चरित्रों और जिनमें वे रहते हैं उस सेटिंग्स में एक तरह की प्रामाणिकता आती है और वे ज्यादा सच्चे और यथार्थपरक लगते हैं। यह फिल्म अपनी गहराती संवेदना में यह बताती है दंगे कितने भयावह होते हैं। मुझे लगता है फिल्म यह साफ साफ संदेश देती है कि हिंसा का मनोवैज्ञानिक असर ज्यादा घातक होता है।
अपने भाई स्वर्गीय फ्लाइंग आफिसर चैतन्य मराठे उनके प्रेरणा स्रोत हैं। इंदौर के एमरल्ड हाइट्स स्कूल की स्टूडेंट रही कांचन कहती हैं कि इस फिल्म की अधिकांश शूटिंग हैदराबाद में और कुछ हिस्सों की शूटिंग मुंबई और अहमदाबाद में हुई। शूटिंग के अनुभवों को साझा करते हुए वे कहती हैं कि नंदिताजी के साथ काम करते हुए यह लगा ही नहीं कि वे इतनी बड़ी अभिनेत्री हैं। पटकथा से लेकर फिल्म के अन्य पहलुअों पर वे खुले दिल से बात करती थीं और हर छोटे से छोटे काम में संलग्न रही। यही कारण है कि मैंने बतौर सहायक निर्देशिका यह ध्यान रखा कि फिल्म में सही चीज सही समय पर सही जगह मौजूद हो। उदाहरण के लिए फिल्म की एक कहानी में हिंदुबहुल कॉलोनी में एक मुस्लिम संगीतकार (नसीरूद्दीन शाह) बरसों से रह रहा है। तो हमने उसके वाद्ययंत्रों, उन पड़ी धूल, बजुर्गों के फोटो, बैठने की व्यवस्था, गादी-तकिये तक इस तरह से चुने की वह चरित्र को प्रामाणिक बना सकें। वे कहती हैं कि मुझे नहीं पता यह फिल्म समाज में कितनी जागरूकता पैदा करेगी लेकिन मुझे लगता है कि यह फिल्म हर व्यक्ति को देखनी चाहिए क्योंकि यह कहीं न कहीं उसे छुएगी। और कहेगी कि हिंसा का रास्ता कतई नहीं अपनाया जाना चाहिए। इस फिल्म को पाकिस्तान के कारा फिल्म फेस्टिवल से लेकर आसियना के निर्देशकों की पहली फिल्म के फेस्टिवल तक में बेस्ट फिल्म के पुरस्कार मिल चुके हैं।
इमेजेसः
1.फिराक में नसीरूद्दीन शाह
2.कांचन मराठे