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Friday, May 15, 2009

फैशन का जलवा धांसू, गायब हैं आंसू



आइफा अवार्ड के लिए फिल्म फैशन दो श्रेणियों में नामांकित हुई है। मधुर भंडारकर सर्वश्रेष्ठ निर्देशक की श्रेणी में
जबकि सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री की श्रेणी में प्रियंका चोपड़ा को नामांकित किया गया है। मधुर भंडारकर चांदनी बार, पेज-3, ट्रेफिक सिग्नल और कॉर्पोरेट जैसी चर्चित फिल्में बना चुके हैं। उनके बार में यह बहुप्रचारित है कि उनकी फिल्में यथार्थपरक हैं। वे समाज की कोई कड़वी सचाई को सामने लाते हैं। वे पोल खोलते हैं, चेहरे बेनकाब करते हैं। रिश्तों में स्वार्थ की सड़ांध को उघाड़ देते हैं। वे कुछ संवेदनशील मानवीय पहलूओं पर भी ध्यान देते हैं और इस तरह अपनी फिल्म में कुछ अच्छी और उजली बातों को भी अभिव्यक्त करते हैं। लेकिन उनकी लगभग सभी फिल्में सनसनी पर टिकी होती हैं। चाहे पात्र हो, रिश्ते हों, कोई स्थिति हो ये सब किसी सनसनी से लिपटे होते हैं। यह एक तरह की परजीविता है। उनकी फिल्में सनसनी की परजीवी हैं। उस पर सांस लेती हुई जिंदा रहती हैं।
यदि चांदनी बार को छोड़ दिया तो उनकी सारी फिल्में सनसनीखेज फिल्में हैं। चांदनी बार सचाई के ज्यादा करीब लगती है। उसमें सनसनी नहीं है बल्कि एक बार गर्ल के जीवन की मार्मिक संघर्ष गाथा है। स्थितियां सनसनी पैदा नहीं करते बल्कि यथार्थ की परतों को पूरी मार्मिकता से उघाड़ती हैं। हम एक बार गर्ल के संत्रास, पीड़ा और अवसाद को ज्यादा विश्वसनीय ढंग से महसूस कर पाते हैं।
लेकिन फैशन एक खराब फिल्म थी हालांकि कुछ फिल्म समीक्षकों का मानना है कि यह मधुर भंडारकर की सबसे सोबर फिल्म है लेकिन मैं उनसे असहमत हूं । इसके कुछ कारण हैं। पहला कारण तो यही कि मधुर भंडारकर फैशन में कपड़ों के डिजाइनों से लेकर उनकी सलवटें तक को कल्पनाशील ढंग से नहीं दिखा पाते तो अपने करियर की हर हद को छूती नायिका की आत्मा पर पड़ी खरोंचों को कैसे दिखा पाते। उनकी इस फिल्म का अधिकांश हिस्सा फैशन की चकाचौंध और समलैंगिकों की दुनिया पर केंद्रित रहता है। यह आकस्मिक नहीं है कि उनकी फिल्म पेज-3 में समलैंगिकों की दुनिया के सनसनीखेज प्रसंग है। फैशन में मॉडल्स के और विशेषकर स्त्री मॉडल्स के दुःख और अवसाद गहराई से अभिव्यक्त नहीं हो पाएं हैं। यदि फैशन की प्रचार सामग्री पर गौर करें तो उसमें एक पोस्टर है जिसमें मुख्य पात्र मेघना माथुर (प्रियंका चोपड़ा) का क्लोज अप है। इसमें उसने एक बड़ा-सा भूरा स्टाइलिश चश्मा पहन रखा है और उस चश्में के पीछे से दांयी आंख से एक आंसू सरकता हुआ दिखाया गया है। कहने की जरूरत नहीं कि इस पोस्टर के जरिये निर्देशक यह कहने का दावा कर रहा है कि यह फिल्म चश्में (जो कि फैशन का एक लोकप्रिय प्रतीक है ) के पीछे छिपे आंसुओं को दिखाना उनका मकसद है। इस पोस्टर से उनकी नीयत साफ दिखती है। लेकिन क्या फिल्म भी उनकी इसी नीयत बताने में कामयाब हुई है। इस पूरी फिल्म को देखने के बाद हाल से निकलते हुए आपको रैम्प पर चलती प्रियंका के कपड़े, चकाचौंध, कैमरों की चमचमाती लाइट्स, रंगीन बीम लाइट्स और आकर्षक सेट्स तो याद रहते हैं लेकिन आंसू याद नहीं रहते। यही कारण है कि आप आंसू या उसका नमक और फिर उसकी जलन कैसे महसूस कर पाएंगे? फैशन न तो खूबसूरत देह को उसकी लयात्मकता में दिखा पाती है और न ही स्त्री की आत्मा के मवाद भरे अंधेरे को। इस फिल्म में अपने कैरियर के लिए किसी भी हद तक जाने के लिए तैयार मॉडल्स की तिकड़में, रईसों के शौक, समलैंगिकों की हरकतें, आपसी द्वेष औज जलन तो सतह पर दिखाई देते हैं लेकिन इन सबके बीच एक शोषित, सताई गई, अपनी महत्वाकांक्षा में जलती, अकेलेपन से घबराकर नशा का सहारा लेती स्त्री के दुःख और अवसाद कहीं दब कर रह जाते हैं। मधुर भंडारकर फैशन इंडस्ट्री में स्त्री की आंतरिक दुनिया के हाहाकार के आयामों को गहराई से छू नहीं सके हैं। सोनाली गुजराल (कंगना रानावत) के जरिये वे यह संभव करने की कोशिश करते हैं लेकिन यह चरित्र फिर फैशन का है ये जलवा की चकाचौंध में पीछे ही कहीं रह जाता है। यदि आप याद करें तो इसके एक और पोस्टर में मुग्धा गोड़से, प्रियंका चोपड़ा और कंगना रानावत को खूबसूरत डिजाइन किए कपड़ों और आकर्षक मैकअप में एक खास जानलेवा अदाओं के साथ जलाव बिखेरते हुए दिखाया गया है। फिल्म भी अपने इसी पोस्टर की तरह मॉडल्स के जलवे बिखेरते हुए अपनी ऊर्जा नष्ट कर देती है।कहने दीजिए मधुर भंडारकर की दिलचस्पी जितनी फैशन इंडस्ट्री के दिलचस्प चरित्रों, उनकी आदतों, इस्तेमाल करने के मौकों और एकदूसरे को येनकेन प्रकारेण हटाकर अपने लिए जगह हथियाने के षड्यंत्रों में थी उतनी किसी स्त्री मॉडल के दुःख और पश्चाताप को पूरी मार्मिकता और संवेदनशीलता से फिल्माने में नहीं । यही कारण है कि इस फिल्म फैशन के तमाम धांसू जलवे तो हैं लेकिन स्त्री के आंसू कहीं ओझल हो गए हैं।

Monday, October 20, 2008

उम्मीद की शक्ल के पीछे छिपी हुई एक और शक्ल




राहुल ढोलकिया की फिल्म परजानिया पर एक बेतरतीब-सा बयान
जो लोग अपने किसी बिछड़ चुके प्रिय का इंतजार करते हैं उनका चेहरा देखिए। समय चुपचाप करवट लेकर उनकी अभी अभी आई झुर्री में छिप गया है। वहां न धूप है, न छाया। आंधी में उड़ चुके हरेपन की हलकी रगड़ बाकी रह गई है। पहले वहां वसंत का कोई रंग था जो महकता था। अब वहां एक उभरी हुई नस है जिसमें खून की आवाजाही दिखाई देती है। वे अपने दोनों पैरों पर खड़े दिखाई देते हैं लेकिन ध्यान से देखें तो उनका एक पैर थक चुका है और दूसरे ने पूरे शरीर का वजन थाम रखा है। वहां घुटने के ऊपर एक कंपकपी है जो असल में सीने के दाएं हिस्से से निकल कर वहां टहल रही है। उनके प्रिय खो चुके हैं...

वे दोपहर की एक जलती हुई गली से निकलते हैं औऱ पाते हैं उनके सामने लंबी रात का चुप्पा गलियारा खुल गया है। वहां राहत देने के लिए कोई चंद्रमा नहीं। वे उसमें चलते हैं। उन्होंने एकदूसरे का हाथ थाम रखा है। हाथों में कई मौसम हैं, अब बारिश है। हाथों से कोई एक चीज चलती है औऱ उनकी आंखों में आकर रुक जाती है। अब धुंधलापन है। वे रूक गए हैं। दोपहर में देखी गई चीखें सूने गलियारे में उन्हें घेर कर चक्कर काटने लगती हैं। चीखों में शक्लें उभरती दिखाई देती हैं औऱ उन्हें लगता है वह अगले ही पल सचमुच उनके सामने होगा जो खो चुका है। शक्ल एक उम्मीद की शक्ल है। शक्लें हमेशा एक गहरी उम्मीद जगाती है, उसमें बहुत सारी उम्मीदें गड्डमड्ड हैं। एक उम्मीद हमेशा दूसरी उम्मीद के पीछे छिपी रहती है लेकिन रात होते होते वे पंजों में बदलकर उनका मांस नोंचने लगती हैं।

तारे मुझे हमेशा किसी का इंतजार करते लगते हैं, पलक झपकाते हुए। मैं आसमान में तारे देखता हूं। वे अपनी पलकें झपका रहे होते हैं। कभी कोई तारा टूटकर तेजी से अपनी गतिमान चमक दिखाता गायब हो जाता है। कई बार नहीं भी। इतने सारे तारे हैं कि एक का डूबना उन्हें और अकेला कर जाता है।

उनके प्रिय खो चुके हैं...

अपने प्रिय के इतंजार में वे अपनी धुरी पर घूमते हुए नींद में भी चक्कर काट रहे हैं। उनकी नींद के आकाश में उतरते पंखों की फड़फड़ाहट है।

कोई इनसे पूछे आहट के क्या मायने होते हैं?

आहट भी एक उम्मीद है, उम्मीद भी एक शक्ल। एक और उम्मीद की शक्ल के पीछे छिपी हुई एक और शक्ल।