Monday, October 20, 2008

उम्मीद की शक्ल के पीछे छिपी हुई एक और शक्ल




राहुल ढोलकिया की फिल्म परजानिया पर एक बेतरतीब-सा बयान
जो लोग अपने किसी बिछड़ चुके प्रिय का इंतजार करते हैं उनका चेहरा देखिए। समय चुपचाप करवट लेकर उनकी अभी अभी आई झुर्री में छिप गया है। वहां न धूप है, न छाया। आंधी में उड़ चुके हरेपन की हलकी रगड़ बाकी रह गई है। पहले वहां वसंत का कोई रंग था जो महकता था। अब वहां एक उभरी हुई नस है जिसमें खून की आवाजाही दिखाई देती है। वे अपने दोनों पैरों पर खड़े दिखाई देते हैं लेकिन ध्यान से देखें तो उनका एक पैर थक चुका है और दूसरे ने पूरे शरीर का वजन थाम रखा है। वहां घुटने के ऊपर एक कंपकपी है जो असल में सीने के दाएं हिस्से से निकल कर वहां टहल रही है। उनके प्रिय खो चुके हैं...

वे दोपहर की एक जलती हुई गली से निकलते हैं औऱ पाते हैं उनके सामने लंबी रात का चुप्पा गलियारा खुल गया है। वहां राहत देने के लिए कोई चंद्रमा नहीं। वे उसमें चलते हैं। उन्होंने एकदूसरे का हाथ थाम रखा है। हाथों में कई मौसम हैं, अब बारिश है। हाथों से कोई एक चीज चलती है औऱ उनकी आंखों में आकर रुक जाती है। अब धुंधलापन है। वे रूक गए हैं। दोपहर में देखी गई चीखें सूने गलियारे में उन्हें घेर कर चक्कर काटने लगती हैं। चीखों में शक्लें उभरती दिखाई देती हैं औऱ उन्हें लगता है वह अगले ही पल सचमुच उनके सामने होगा जो खो चुका है। शक्ल एक उम्मीद की शक्ल है। शक्लें हमेशा एक गहरी उम्मीद जगाती है, उसमें बहुत सारी उम्मीदें गड्डमड्ड हैं। एक उम्मीद हमेशा दूसरी उम्मीद के पीछे छिपी रहती है लेकिन रात होते होते वे पंजों में बदलकर उनका मांस नोंचने लगती हैं।

तारे मुझे हमेशा किसी का इंतजार करते लगते हैं, पलक झपकाते हुए। मैं आसमान में तारे देखता हूं। वे अपनी पलकें झपका रहे होते हैं। कभी कोई तारा टूटकर तेजी से अपनी गतिमान चमक दिखाता गायब हो जाता है। कई बार नहीं भी। इतने सारे तारे हैं कि एक का डूबना उन्हें और अकेला कर जाता है।

उनके प्रिय खो चुके हैं...

अपने प्रिय के इतंजार में वे अपनी धुरी पर घूमते हुए नींद में भी चक्कर काट रहे हैं। उनकी नींद के आकाश में उतरते पंखों की फड़फड़ाहट है।

कोई इनसे पूछे आहट के क्या मायने होते हैं?

आहट भी एक उम्मीद है, उम्मीद भी एक शक्ल। एक और उम्मीद की शक्ल के पीछे छिपी हुई एक और शक्ल।

5 comments:

  1. खुशामदीद रवीन्द्र भाई। पहली पोस्ट पर बधाई। मेरे लिये सुखद आश्चर्य था यह।
    भई लेख पढ़कर लग रहा है आप सोचते भी पेंटिंग की भाषा में हैं। परजानिया देखी थी कुछ महीने पहले और खासा प्रभावित भी हुआ था। अब आपका लिखा पढ़कर सोचता हूँ एक बार आपकी नज़र से भी देख डालूँ।

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  2. एक गहरी उदासी को आपने जैसे लफ्ज़ पहना दिये है......एक शक्ल दे दी है.....

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  3. और फिर उस शक्ल के पीछे एक और उम्मीद!!!

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  4. क्या कहूँ महेन जी,हर लफ्ज बहुत कुछ कह रहा है।

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  5. सुशील भाई, ये पोस्ट रवीन्द्र भाई की है। वे इस ब्लोग के हमारे साथी हैं।

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