ईरानी सिनेमा का नाम सुनते ही एक दृष्यबंध सामने खड़ा हो जाता है जिसमें कथ्य से लेकर चाक्षुकता तक बहुत ज़्यादा विविधता की संभावना बनती है और इस संभावना की वजह से अपेक्षा भी बनती है। यह हैरानी का विषय है कि सिनेमा, जिसपर हमेशा विकसित देशों का आधिपत्य रहा है, उसमें ईरान जैसे नगण्य देश ने अपनी जगह बना ली है और जैसे विश्व के लिए सत्यजित राय ही भारतीय आर्ट सिनेमा का चेहरा है, वैसा ईरान के साथ नहीं है। वहां एक से ज़्यादा फ़िल्मकार हुए हैं जिन्होनें सिनेमा जगत में अपनी पहचान बनाई है। इसकी वजह निश्चित तौर पर हालीवुड की तरह तकनीकी उत्कृष्टता नहीं, वरन कलात्मक श्रेष्ठता है।
एक समय खत्म हो सकने की कगार पर खड़े ईरानी सिनेमा ने विश्व सिनेमा में अपने लिये एक खास जगह बनाई है। यदि ईरानी सिनेमा को बचाने का श्रेय किसी को दिया जा सकता है तो वह है प्रसिद्ध ईरानी निर्देशक दारिउश मेहरजुइ और यदि यह श्रेय किसी फ़िल्म को दिया जा सकता है तो वह उनकी दूसरी फ़िल्म गाव (गाय) है। अताउल्ला खुमैनी द्वारा ईरान में फ़िल्में बनाने की आज्ञा दिये जाने के पीछे इस फ़िल्म का खुमैनी पर प्रभाव माना जाता है।
यह दूसरी फ़िल्म थी जिसे ईरान के शाह ने फ़ंड किया था। उद्देश्य था उजड़ रहे ईरानी सिनेमा को बचाना मगर गाव के बनते ही उसपर पाबंदी लगा दी गई।
शाह का मानना था कि इस फ़िल्म से बाहरी दुनिया के मन में ईरान की ग़लत छवि बनेगी। फ़िल्म को चोरी से कई समारोहों में दिखाया गया और उसे तत्काल बहुत प्रसिद्धि मिली।
गाव को बनाने के लिये दारिउश को बहुत ही सीमित संसाधन दिये गए थे और इसका प्रभाव फ़िल्म
में जहाँ-तहाँ दिखाई भी देता है मगर कलात्मक दृष्टिकोण से फ़िल्म में कोई ख़ामी नहीं आई है। फ़िल्म के कई दृष्यों को देखते हुए आप बार-बार महसूस करते हैं कि फ़िल्म चाक्षुक कविता बन पड़ी है या यूँ कहें कि ये दृष्य फ़िल्म से बाहर निकलकर बेहद आर्टिस्टिक पेंटिंग सरीखे लगते हैं। यदि आप इन दृष्यों के पार देखने की कोशिश करेंगे तो आपको वहाँ ईरानी जीवन-शैली सर्वत्र बिखरी दिखाई पड़ेगी।
फ़िल्म कई स्तरों पर संवाद की गुंजाईश बनाती है और हर संभावना को
समझने के लिये ईरान के जीवन और इतिहास में झांकना शायद आवश्यक हो। हसन एक साधारण व्यक्ति है मगर जो चीज़ उसे विशेष बनाती है वह उसकी इकलौती गाय है। यह गाय उस उजाड़ और रेगिस्तानी गाँव की इकलौती गाय भी है और लोगों के कौतुहल का विषय भी।
कुछ समीक्षकों का मानना है कि गाव बनाते समय दारिउश पर इतालवी नेओरिआलिज़्म का प्रभाव था। कुछ इसे सही नहीं मानते। दारिउश का क्या कहना है, यह जानने से पहले इसके कारणों की ओर एक नज़र डाल लेना समीचीन होगा। दारिउश के पास यह फ़िल्म बनाने के लिये बहुत ही सीमित साधन थे। संभवत: यह एक कारण हो कि फ़िल्म में इतालवी नेओरिआलिज़्म का
प्रभाव दिखाई देता हो या वे सचमुच ही इस फ़िल्म बनाने की इस विधा के प्रभव में रहे हों। कुछ समय पहले रिलीज़ हुई इस फ़िल्म की डीवीडी में दारिउश का एक इन्टरव्यु भी शामिल किया गया था जिसमें उन्होनें इतालवी नेओरिआलिज़्म के प्रभाव में यह फ़िल्म बनाए जाने की बात स्वीकार की है।
फ़िल्म में यत्र-तत्र कई चरित्र हैं जो कहानी के प्लाट के बाहर भी बहुत कुछ कहते हैं। इन सब-प्लाट्स में संभवत: कोई सामाजिक संदेश छिपा हुआ है। उजाड़ में खड़ा एक गांव जो अपने-आप में बेहद
सीमित भी है और पूर्ण भी शायद रेनेसां से पहले के छोटे-छोटे दुनिया से कटे हुए समाजों की याद दिलाता है। दारिउश एक पिछड़े समाज की दकियानूसी को सामने लाने में छोटे-छोटे दृश्यों और संवादों का प्रयोग करते हैं। गाँव के लोग बैठकर हसन की गाय के बारे में चर्चा करते हैं और
खिड़की से चाय लिये हुए हाथ नमूदार होता है। एक युवक एक पागल को गाँवभर के बच्चों के मनोरंजन का साधन बनाए रहता है। यह दकियानूसीपन आगे जाकर भय और अंधविश्वास तक जाता है। चौपाल पर बैठकर गाँव के बुज़ुर्ग तमाम तरह की आशंकाओं से व्यथित हैं जब बोलोरियों द्वारा फिर से गाँव में चोरी करने की बात सामने आती है। बोलोरी सिर्फ़ चोर नहीं हैं, वे समुद्री डाकुओं की तरह हैं जिन्हे कोई जानता नहीं है। वे रात के अंधेरे में आकर गाँव की सम्पत्ति पर अपना हाथ साफ करते हैं। वे एक ऐसी सत्ता हैं जो सीमांत पर मौजूद है, दिखती है मगर फिर भी मानव होने के गुण/दुर्गुण से परे हैं। फ़िल्म में वे हर समय भय के सबसे बड़े कारण के रूप में मौजूद रहते हैं।
हसन की गाय मात्र गाय होने से ऊपर की चीज़ है। सिर्फ़ नहलाने के लिये वह उसे गाँव से बाहर ले जाता है, उसके श्रंगार के लिये सामान खरीदता है, दो पत्नियों को छोड़कर वह गाय के पास ही सोता है। और तो और वह उसे लाड करते हुए उसके साथ चारा भी खाता है।
हसन की अनुपस्थिति में गाय जब मर जाती है तो पूरे गाँव में अफ़रातफ़री मच जाती है। तमाम अंधविश्वासों के बीच वे उसके मरने का कारण खोजने की कोशिश करते हैं। गाँव का सबसे समझदार माना जाने वाला इस्लाम भी इस बारे में उलझन में है। गाँव के लोग इसमें शैतान की बुरी नज़र का प्रभाव मानते हैं। गाँव की सभा में हसन से उसकी गाय के मरने की बात छुपाने पर चर्चा होती है और यह चर्चा अकसर बुद्धिमत्ता से परे की चर्चा होती है। गाय को अंतत: एक सूखे कुँए में डाल दिया जाता है। फ़िल्म में एक चरित्र है जिसके लिये गाँव और गाँव के लोग बौद्धिक स्तर पर पिछड़े हुए हैं।
वह लफ़ंडर किस्म का
एक आदमी है जो हर काम में अपनी टांग अड़ाता है मगर उसके तर्क काटने योग्य न तो मुखिया है न ही इस्लाम। यदि फ़िल्म में कोई राजनैतिक संदेश निहित है तो उसका एक छोर इस चरित्र पर जाकर ज़रूर मिलता है। वैसे मूल कहानी के लेखक ग़ुलाम हुसैन सईदी लेफ़्ट विचारधारा के लेखक थे।
अंतत: जब हुसैन गाय के ग़म में पागल हो जाता है और
गाँव वालों की सारी कोशिशों के बावजूद भी संभल नहीं पाता तो इस्लाम के सुझाव पर गाँववाले उसे किसी अस्पताल ले जाने को तैयार हो जाते हैं। उन्हें यकीन नहीं कि अस्पताल वाले कुछ कर सकते हैं या नहीं मगर इस्लाम का मानना है कि वे “कुछ” तो कर ही पाएंगे।
बारिश के बीच जब हुसैन को बांधकर और लगभग घसीटकर ले जाया जाता है। रास्ते में उसके विरोध करने पर इस्लाम उसे सोटी से मार-मारकर घसीटता है। यह गाँववालों की हुसैन के पागलपन से उपजी खीझ और निराशा की परिणिति है जिससे वे खुद भी स्तब्ध हैं। हुसैन अंतत: पहाड़ से गिरकर मर जाता है।
दारिउश ने फ़िल्म में छायांकन पर काफ़ी मेहनत की है और
इसका प्रभाव शेड्स और छायाओं के सामंजस्य के रूप में दिखाई देता है मगर अफ़सोस कि जिस कैमरा से काम लिया गया था वह कामचलाऊ क्वालिटी का था और शायद फ़िल्म की मूल प्रति को सहेजकर नहीं रखा गया था। डीवीडी में उपलब्ध प्रिंट में छायांकन का चमत्कार क्वालिटी की वजह से खत्म हो गया है, फिर भी उनकी उत्कृष्टता को नकारा नहीं जा सकता।