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मुझे माजिद मजीदी की तीन फ़िल्में देखने का मौका मिला है और हर बार नरेट करने की उनकी शैली स्तब्ध कर देने वाली लगी। तीनों फ़िल्में जो मैनें देखीं, बारान, चिल्ड्रन आफ़ पैराडाइस और पेदार, उनमें शैली के अलावा भी कुछ समानताएं मुझे दिखाई दीं। पहले तो यही कि हर कहानी में एक लड़का दुनिया से अपना तालमेल बैठाने के लिये संघर्ष कर रहा है। उसके शेड भले ही हर बार अलग अलग हैं मगर समानता यह है कि उसे ठीक ठीक यह पता है कि उसका संघर्ष दुरुह है और वह इसके लिये कटिबद्ध है। दूसरी ओर मजीदी की फ़िल्में ईरानी जीवन में झांककर जटिल मानवीय, सामाजिक और पारिवारिक संबंधों की पड़ताल करती हैं।
पेदार का मेहरुल्लाह एक शौव्निस्ट चेहरा है, जिसे अपनी माँ का एक पुलिसवाले से शादी कर लेना खटक रहा है। हालांकि वह अभी 13-14 साल का ही है मगर उसमें ये संस्कार पड़ चुके हैं कि वही घर का मुखिया है इसलिये उसकी माँ को ऐसा करने का हक नहीं था। इस सोच के लिये खुराक वह समाज देता है, जिसमें वह बड़ा हो रहा है। आगे जाकर यह संस्कार फिर ऐसा समाज गढ़ता है जहाँ स्त्री सेकेंडरी है; सबसे पहले पुरुष ही है और यही संस्कार है जिसके चलते वह शहर में नौकरी करने जाता है कि वह कुछ पैसे कमाकर ला सके और घर चलाने में सुभीता हो। मगर मजीदी फ़िल्म में इस स्तर तक नहीं जाना चाहते।
संबंधों की पड़ताल करने के लिये मजीदी नगण्य लोगों की जिंदगी की छोटी-छोटी घटनाओं को उठाते हैं। वे सामाजिक कुरीतियों या धर्म जैसे बड़े मुद्दों को नहीं छूते। उनके चरित्र भी ठेठ ईरानी हैं जिनकी ज़िंदगी और जो स्वंय बाहरी दुनिया के लिये संभवत: दूसरी दुनिया की बातें हों मगर जब वही बाहरी लोग कहानी के थीम तक पहुँचते हैं तो मजीदी की अप्रोच वैश्विक लगने लगती है। ऐसा इसलिये क्योंकि मनुष्य देशकाल और भौगोलिकता के परे व्यवहारगत रूप में और अपने गुणों-दुर्गुणों के साथ एक ही सा है; जिसे हम दरअसल ग्रे कैरेक्टर कहते हैं और मजीदी इन्ही चरित्रों के आधार पर अपनी बात कहते हैं।
उनके यहाँ जो चरित्र हैं, चाहे वह मेहरुल्लाह हो, लतीफ़ हो, अली हो या ज़हरा, इस सभी के द्वंद बेहद बेसिक हैं। न तो उनका सीज़र होने का दावा है और न ही वहाँ चाँद की आकांक्षा है। उनके जीवन में नाटकीयता ग़ायब है या यूँ कहें कि उनकी ज़िंदगी के जिस हिस्से को मजीदी पकड़ते हैं वह इतना साधारण है कि उसे एक घटना का नाम देना भी बड़बोलापन होगा। यही मजीदी की विशेषता भी है कि 70mm के परदे पर वे दर्शक को यह महसूस नहीं होने देते कि उसे उंगली पकड़कर वे अपने साथ उन आम लोगों की आम सी ज़िंदगी के बेहद नज़दीक ले गए हैं, इतना नज़दीक कि आप हाथ बढ़ाकर उन चरित्रों को छू सकते हैं। हालीवुड या बालीवुड के उलट यह नज़दीकी इतनी रियलिस्टिक है कि इसे उस समाज का प्रामाणिक दस्तावेज़ भी माना जा सकता है। मजीदी की फ़िल्में रियलिज़्म के बेहद नज़दीक होकर भी अपनी कलात्मक उत्कृष्टता बचाए रखती है और सिर्फ़ डाक्युमेंटरी बनकर नहीं रहती। वे फ़िल्म और डाक्युमेंटरी के बीच एक नया स्पेस पैदा करती हैं।
दूसरी ओर मजीदी का कैमेरा दुनिया को एक बच्चे के नज़रिये से देखता है, जिसके लिये छोटी से छोटी घटना भी विशेष है और उसको दिनों तक उलझाए रखने के लिये पर्याप्त। मेहरुल्लाह का संघर्ष अपने सौतेले बाप से अपनी माँ और छोटी बहनों को वापस पाने का है जो उसको दिनों तक उलझाए रखता है। उसका मानना है कि उसके सौतेले पिता ने उसकी माँ से शादी उसकी छोटी बहन के इलाज के खर्च के एवज में की। यह संघर्ष उसपर इस कदर हावी हो जाता है कि वह और कुछ भी सोच पाने में अक्षम हो जाता है। वह अपने विरोध और आक्रोश को व्यक्त करने के लिये कई तरीके अपनाता है और सौतेले बाप से, जोकि पुलिसवाला है, उसकी मुठभेड़ बार-बार होती है। पुलिसवाले का साबका इस तरह के विरोधों और लोगों से होता रहता है इसलिये वह निश्चिंत है। बावजूद उसके मेहरुल्लाह को अपनाने की कोशिश के उन दोनों के बीच संघर्ष बढ़ता जाता है और अंतत: पुलिसवाला उसे शहर जाकर पकड़ लेता है। शहर से लौटते हुए भी पुलिसवाले की दिक्कतें कम नहीं होतीं। मेहरुल्लाह बार-बार भागने की कोशिश करता है मगर अनुभवहीन होने के कारण पकड़ा जाता है। उस चूहे-बिल्ली के खेल में वे अंतत: रेगिस्तान के बीच फ़ंस जाते हैं और पुलिसवाले की मोटरसाइकिल खराब हो जाती है। अंतत: पुलिसवाला यह जानते हुए कि मेहरुल्लाह में अभी भी कुछ ताकत बाकी है उसकी हथकड़ी खोल देता है और उसे अपनी जान बचाने को कहता है। मेहरुल्लाह को वहीं कुछ ऊँट दिखाई देते हैं। थोड़ा आगे जाकर उसे पानी का एक छोटा सा सोता भी मिल जाता है। वह अपने सौतेले बाप को किसी तरह वहां तक घसीटकर लाता है और दोनों पानी में औंधे मुँह गिर जाते हैं।
मजीदी अपनी फ़िल्मों को खास तरह से अंत तक लाते हैं। वहां भड़कीला सा “The End”, “La fin” या “They lived happily ever after” नहीं दिखता, बल्कि आखरी दृष्य पोएटिक होता है। दूसरी फ़िल्मों के अंत के बारे में मैं बाद में अलग से चर्चा करूंगा। पेदार में जब सौतेले बाप-बेटे पानी में औंधे पड़े होते हैं तो बाप की जेब से उसकी मेहरुल्लाह की माँ और बहनों के साथ खींची तस्वीर निकलकर बहती हुई मेहरुल्लाह के पास जाती है। लगभग मर चुके पुलिसवाले की उंगलियों की हरकत उसके पुनर्जीवित होने का संकेत देती है। यही संकेत तस्वीर के मेहरुल्लाह को छूने पर भी दिखता है। इस दृष्य से बाप-बेटे पहली बार एक-दूसरे से संवेदनात्मक रूप से जुड़ते दिखते हैं और बेहद सुंदर चाक्षुक काव्यात्मकता के साथ पुलिसवाला एक ओर मेहरुल्लाह की माँ और बहनों को उसे सौंप देता है और दूसरी ओर खुद भी उससे जुड़ जाता है।
अगर अंत की चर्चा की जाए तो आनंद फ़िल्म के अंत में हमें ऐसा ही देखने को मिलता है जब आनंद की आवाज़ के बंद होने के बाद आडियो की रील खुलकर तेज़ गति से घूमने लगती है और आनंद के मुक्त हो जाने को दर्शाती है। मजीदी की हर फ़िल्म अपने अंत के कारण दर्शक पर ज़्यादा देर तक हावी रहती है।
पेदार का मेहरुल्लाह एक शौव्निस्ट चेहरा है, जिसे अपनी माँ का एक पुलिसवाले से शादी कर लेना खटक रहा है। हालांकि वह अभी 13-14 साल का ही है मगर उसमें ये संस्कार पड़ चुके हैं कि वही घर का मुखिया है इसलिये उसकी माँ को ऐसा करने का हक नहीं था। इस सोच के लिये खुराक वह समाज देता है, जिसमें वह बड़ा हो रहा है। आगे जाकर यह संस्कार फिर ऐसा समाज गढ़ता है जहाँ स्त्री सेकेंडरी है; सबसे पहले पुरुष ही है और यही संस्कार है जिसके चलते वह शहर में नौकरी करने जाता है कि वह कुछ पैसे कमाकर ला सके और घर चलाने में सुभीता हो। मगर मजीदी फ़िल्म में इस स्तर तक नहीं जाना चाहते।
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संबंधों की पड़ताल करने के लिये मजीदी नगण्य लोगों की जिंदगी की छोटी-छोटी घटनाओं को उठाते हैं। वे सामाजिक कुरीतियों या धर्म जैसे बड़े मुद्दों को नहीं छूते। उनके चरित्र भी ठेठ ईरानी हैं जिनकी ज़िंदगी और जो स्वंय बाहरी दुनिया के लिये संभवत: दूसरी दुनिया की बातें हों मगर जब वही बाहरी लोग कहानी के थीम तक पहुँचते हैं तो मजीदी की अप्रोच वैश्विक लगने लगती है। ऐसा इसलिये क्योंकि मनुष्य देशकाल और भौगोलिकता के परे व्यवहारगत रूप में और अपने गुणों-दुर्गुणों के साथ एक ही सा है; जिसे हम दरअसल ग्रे कैरेक्टर कहते हैं और मजीदी इन्ही चरित्रों के आधार पर अपनी बात कहते हैं।
उनके यहाँ जो चरित्र हैं, चाहे वह मेहरुल्लाह हो, लतीफ़ हो, अली हो या ज़हरा, इस सभी के द्वंद बेहद बेसिक हैं। न तो उनका सीज़र होने का दावा है और न ही वहाँ चाँद की आकांक्षा है। उनके जीवन में नाटकीयता ग़ायब है या यूँ कहें कि उनकी ज़िंदगी के जिस हिस्से को मजीदी पकड़ते हैं वह इतना साधारण है कि उसे एक घटना का नाम देना भी बड़बोलापन होगा। यही मजीदी की विशेषता भी है कि 70mm के परदे पर वे दर्शक को यह महसूस नहीं होने देते कि उसे उंगली पकड़कर वे अपने साथ उन आम लोगों की आम सी ज़िंदगी के बेहद नज़दीक ले गए हैं, इतना नज़दीक कि आप हाथ बढ़ाकर उन चरित्रों को छू सकते हैं। हालीवुड या बालीवुड के उलट यह नज़दीकी इतनी रियलिस्टिक है कि इसे उस समाज का प्रामाणिक दस्तावेज़ भी माना जा सकता है। मजीदी की फ़िल्में रियलिज़्म के बेहद नज़दीक होकर भी अपनी कलात्मक उत्कृष्टता बचाए रखती है और सिर्फ़ डाक्युमेंटरी बनकर नहीं रहती। वे फ़िल्म और डाक्युमेंटरी के बीच एक नया स्पेस पैदा करती हैं।
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दूसरी ओर मजीदी का कैमेरा दुनिया को एक बच्चे के नज़रिये से देखता है, जिसके लिये छोटी से छोटी घटना भी विशेष है और उसको दिनों तक उलझाए रखने के लिये पर्याप्त। मेहरुल्लाह का संघर्ष अपने सौतेले बाप से अपनी माँ और छोटी बहनों को वापस पाने का है जो उसको दिनों तक उलझाए रखता है। उसका मानना है कि उसके सौतेले पिता ने उसकी माँ से शादी उसकी छोटी बहन के इलाज के खर्च के एवज में की। यह संघर्ष उसपर इस कदर हावी हो जाता है कि वह और कुछ भी सोच पाने में अक्षम हो जाता है। वह अपने विरोध और आक्रोश को व्यक्त करने के लिये कई तरीके अपनाता है और सौतेले बाप से, जोकि पुलिसवाला है, उसकी मुठभेड़ बार-बार होती है। पुलिसवाले का साबका इस तरह के विरोधों और लोगों से होता रहता है इसलिये वह निश्चिंत है। बावजूद उसके मेहरुल्लाह को अपनाने की कोशिश के उन दोनों के बीच संघर्ष बढ़ता जाता है और अंतत: पुलिसवाला उसे शहर जाकर पकड़ लेता है। शहर से लौटते हुए भी पुलिसवाले की दिक्कतें कम नहीं होतीं। मेहरुल्लाह बार-बार भागने की कोशिश करता है मगर अनुभवहीन होने के कारण पकड़ा जाता है। उस चूहे-बिल्ली के खेल में वे अंतत: रेगिस्तान के बीच फ़ंस जाते हैं और पुलिसवाले की मोटरसाइकिल खराब हो जाती है। अंतत: पुलिसवाला यह जानते हुए कि मेहरुल्लाह में अभी भी कुछ ताकत बाकी है उसकी हथकड़ी खोल देता है और उसे अपनी जान बचाने को कहता है। मेहरुल्लाह को वहीं कुछ ऊँट दिखाई देते हैं। थोड़ा आगे जाकर उसे पानी का एक छोटा सा सोता भी मिल जाता है। वह अपने सौतेले बाप को किसी तरह वहां तक घसीटकर लाता है और दोनों पानी में औंधे मुँह गिर जाते हैं।
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मजीदी अपनी फ़िल्मों को खास तरह से अंत तक लाते हैं। वहां भड़कीला सा “The End”, “La fin” या “They lived happily ever after” नहीं दिखता, बल्कि आखरी दृष्य पोएटिक होता है। दूसरी फ़िल्मों के अंत के बारे में मैं बाद में अलग से चर्चा करूंगा। पेदार में जब सौतेले बाप-बेटे पानी में औंधे पड़े होते हैं तो बाप की जेब से उसकी मेहरुल्लाह की माँ और बहनों के साथ खींची तस्वीर निकलकर बहती हुई मेहरुल्लाह के पास जाती है। लगभग मर चुके पुलिसवाले की उंगलियों की हरकत उसके पुनर्जीवित होने का संकेत देती है। यही संकेत तस्वीर के मेहरुल्लाह को छूने पर भी दिखता है। इस दृष्य से बाप-बेटे पहली बार एक-दूसरे से संवेदनात्मक रूप से जुड़ते दिखते हैं और बेहद सुंदर चाक्षुक काव्यात्मकता के साथ पुलिसवाला एक ओर मेहरुल्लाह की माँ और बहनों को उसे सौंप देता है और दूसरी ओर खुद भी उससे जुड़ जाता है।
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अगर अंत की चर्चा की जाए तो आनंद फ़िल्म के अंत में हमें ऐसा ही देखने को मिलता है जब आनंद की आवाज़ के बंद होने के बाद आडियो की रील खुलकर तेज़ गति से घूमने लगती है और आनंद के मुक्त हो जाने को दर्शाती है। मजीदी की हर फ़िल्म अपने अंत के कारण दर्शक पर ज़्यादा देर तक हावी रहती है।
जी हाँ सौभाग्य से सोनी पिक्स ओर जी मूवी ने इनमे से दो पिक्चर दिखायी है ओर इनके बारे में कथादेश या नया ज्ञानोदय में पढने के बाद मेरी दिलचस्पी जगी थी.....खास तौर से चिल्ड्रेन्स ......वाली मूवी में
ReplyDeleteऐसी फिल्मों का जिक्र कर आप बड़ा भला कर रहे हैं मेरे जैसे लोगों का... जो ऐसी फिल्में ढूंढ़ते रहते हैं. कुछ ऐतिहासिक फिल्मों का भी जिक्र कीजिये या फिर क्राइम.
ReplyDeleteअच्छी जानकारी देने का शुक्रिया। बहुत अच्छे आलेख के लिए बधाई।
ReplyDeleteआपने इस फिल्मकार की फिल्मों की विशेषताअों को बखूबी बताया है और उसके मर्म को भी एक हद तक पकड़ने की सार्थक कोशिश की है।
ReplyDeleteइधर कुछ अर्से बात आपके ब्लाग पर आया और एक साथ तीन पोस्ट देखकर सुखद आश्चर्य हुआ। आप उतने भी आलसी नहीं जितना होने का दावा करते हैं। किसी एक फिल्म को हर स्तर पर लगभग खंगाल लेने तक का विश्लेषण करती ऐसी टिप्पणियां कहीं नहीं मिलतीं। आप वीडियो, तस्वीरों से अपने विश्लेषण को बहुतस्तरीय बना देते हैं। क्या इनमें साउंडट्रेक की आडियो क्लिप्स का इस्तेमाल किया जा सकता है? माजिद मजीदी और त्रुफो जैसे दिग्गजों की फिल्मों का विश्लेषण निःसंदेह एक उपहार है, इसलिए भी कि इन फिल्मों के बारे में अकादमिक लेखन से परे हम कुछ और जानना चाहते हैं जो नितांत निजी अनुभव से उपजा हो और पेशेवर सिने समीक्षकों की चालाकियों से परे हो...
ReplyDeleteदिनेश भाई,
ReplyDeleteआपने पते की बात कही। आगे से कोशिश रहेगी कि संभव हो तो फ़िल्म की या उससे संबंधित आडियो/विडियो क्लिप डाली जाए।