Monday, December 8, 2008

400 ब्लोव्ज़


400 ब्लोव्ज़ के बारे में बहुत कुछ लिखा जा चुका है और ज़्यादातर इस फ़िल्म को एक बच्चे की त्रासदी घोषित किये जाने की तर्ज़ पर। यह ग़लत नहीं है मगर मुझे फ़िल्म का दूसरा पहलू भी नज़र आता है। जहां तक त्रासदी कहे जाने की बात है, यह इसलिये कि यह फ़िल्म प्रत्यक्षत: यही प्रेषित भी करती है। मुझे लगता है कि इस फ़िल्म के बारे में किसी ने दूसरी बार देखकर नहीं लिखा, एक ही बार देखकर इसकी समीक्षा कर डाली। पहली बार मुझे यह फ़िल्म एक अस्वीकार्य बच्चे की दु:खद और मूक त्रासदी ही लगी, मगर दूसरी बार देखते हुए मुझे इसमें मज़ा आने लगा और अंतोने के चरित्र में जो उछश्रंखलता है, वह वास्तव में फ़िल्म का मूल कथ्य लगने लगी। अंतोने से कई लोग अपने बचपन को रिलेट कर सकते हैं और शायद अंतोने बड़ा होकर जो बनेगा-बिगड़ेगा उससे भी अपने को रिलेट कर पाएँ। उसके बड़े होकर बनने-बिगड़ने की संभावना को फ़िल्म का अंत विस्तार देता है और दर्शक पर छोड़ देता है कि जहाँ फ़िल्म खत्म होती है उससे आगे वह उसे कैसे विज़्युलाइज़ करता है और कैसे विस्तार देता है। ज़ाहिर है यह विस्तार हर व्यक्ति की निजी सोच पर निर्भर करती है।
त्रूफ़ौ जैसे अंतोने को समंदर के किनारे लाकर छोड़ देते हैं उससे यह कहानी एक बच्चे के महज़ बनने-बिगड़ने की नही बल्कि कुछ कर पाने या कुछ न कर पाने की बन जाती है। समंदर जहाँ शुरु हो रहा है वहाँ धरती खत्म हो रही है; एक दूसरी दुनिया शुरु हो रही है। यह दुनिया क्या देती है अंतोने को और वह इससे क्या ले पाता है वह आपके सोचने के लिये मसाला है। साथ ही समंदर का किनारा अनंत और अनंत से उपजने वाली संभावनाओं का द्योतक भी है।
अंतोने, रेने और दूसरे तमाम बच्चे आए दिन शैतानियाँ करते हैं मगर अंतोने की गलतियाँ बार-बार पकड़ी जाती हैं। उसका अध्यापक और माँ उसे नाकारा समझते हैं और पिता की अपनी एक दुनिया है जिससे वह बाहर आने को ज़्यादा उत्सुक नहीं है, मगर यह उतना ग़लत नहीं लगता जितना माँ का उससे विलगाव और निराशा और अध्यापक और अंतोने को हैंडल/मिसहैंडल करने का तरीका।
मुझे अंतोने में शुरु से ही संभावनाएँ नज़र आती हैं। वह एक ऐसा बच्चा है जो बड़ों की दुनिया और उस दुनिया की बेवकूफ़ियों को समझता है और इससे कुछ-कुछ फ़ायदा उठाना भी सीख गया है। यह “ज्ञान” उसके आगे बढ़ने के दरवाज़े खोलेगा यह तय है। उसकी ग़लती इतनी भर है कि उसे यह “ज्ञान” उम्र से पहले हो गया है। इसका श्रेय उन्ही लोगों को है जो उसके सामने बड़ों की दुनिया परोस रहे हैं; जैसे अध्यापक की खीझभरी टिप्पणियाँ उसे अंतोने के सामने नंगा करती हैं और अंतोने उससे निर्लिप्त हो जाता है। इसी तरह वह अपनी माँ से भी निर्लिप्त हो जाता है जब वह उसे अपने एक सहकर्मी को चूमते हुए देखता है या यह पहले से मौजूद निर्लिप्तता का सिर्फ़ एक हिस्सा है। शायद इसीलिये वह इतनी सहजता से अपने पिता से पूछता है, “माँ चली गई है?” वह अपने माँ-बाप की लड़ाईयों का अकसर गवाह बनता है। जब उसकी माँ उसे कहती है कि अगर वह अपनी क्लास में बेहतर प्रदर्शन करेगा तो वह उसे एक हज़ार फ़्रेंक देगी मगर उसे अपने पिता से यह बात छुपानी होगी। ऐसे हर मौके पर वह बड़ों की दुनिया की दहलीज पर कदम रखता है और उसकी स्वतंत्र होने की इच्छा ज़ोर मारने लगती है। मुझे व्यक्तिगत तौर पर यह इच्छा उस त्रासदी से बड़ी लगती है जिसे त्रूफ़ौ हमारे साथ साझा कर रहे हैं क्योंकि पार्श्व में एक चरित्र का निर्माण होता दिखाई देता है। अगर वास्तविकता की बात करें तो त्रूफ़ौ जैसा उच्चकोटि का दिग्दर्शक हमारे सामने है।
अंतोने तब लाचार लगता है जब उसे चोरों और वैश्याओं के साथ पुलिस की गाड़ी में डालकर पेरिस से बाहर ले जाया जाता है। इस दृष्य को दो--तीन कोणों से दर्शाया गया है। पहले जालियों के पीछे अंतोने का चेहरा क्लोज़ अप में आता है और फ़िर प्रोफ़ाइल में अंतोने जाली से बाहर पीछे छूटते पेरिस और उसकी रंगीनियों (आज़ादी) को देखता है। इस दृष्य में अंतोने रोता है क्योंकि यह उसकी स्वतंत्रता का अतिक्रमण है। यह वह स्वतंत्रता है जिसके एवज में उसके हिस्से रोज़ की लताड़ आती है। यही स्वतंत्रता उसे तमाम विरोधों के बीच प्रसन्न रखती है और यही उससे छिन रही है मगर दूसरे कोण से देखें तो यह अंतोने के लिये उस अनिश्चित स्वतंत्रता का द्वार है, जिसके तत्व उसके स्कूल और दड़बे जैसे घर में ग़ायब हैं।

4 comments:

  1. मैने त्रुफो की फिल्में इंदौर में देवी अहिल्या विश्वविद्यालय द्वारा समय समय पर आयोजित किए जाने वाले फिल्मोत्सव में उसके नए, भव्य और सुंदर अॉडिटोरियम में देखी थीं। इंदौर विश्वविद्यालय ने एक अच्छी परंपरा की शुरूआत की है जिसमें समय समय पर होने वाले फिल्मोत्सव में बेहतरीन फिल्मों को देखने का मौका मिल रहा है लेकिन आपने जिस फिल्म 400 ब्लोज पर लिखा है, वह मैंने हाल ही में वर्ल्ड मूवीज पर देखी। मुझे लगता है यह फिल्म बड़ों की हिसंक, व्यस्त, धोखाधड़ी वाली और आत्मकेंद्रित दुनिया में बच्चों के लगातार हाशिए पर जाने की और उसी हाशिए में अपनी मनमाफिक जिंदगी जीने के लिए स्पेस क्रिएट करने की कहानी भी है। इसी हाशिए में वह बच्चा अपने दोस्त के साथ मनोरंजन करता है, डर के मारे प्रेस में, मशीनों की गड़गड़ाहट के बीच सोता है, अपना मुंह धोने के लिए चौराहे पर बंद हो चुके फौवारें के ठहरे पानी से मुंह धोता है और भूख मिटाने के लिए दूध की बोटल चोरी करता है, सड़क पर ही छुपते हुए तीन बार कहीं रूककर पलटकर गटागट दूध पीता है और अंततः जो समाज उसे यह सब करने के लिए मजबूर करता है, वही उसे सुधारने के लिए भेज देता है लेकिन अंततः वह वहां से भी भाग खड़ा होता है। यह फिल्म दौड़ते-भागते-हांफते माता-पिता के जूतों के फीतों में बंधी रह गई एक बच्चे की दम तोड़ती इच्छाअों की कहानी भी है।

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  3. क्या बात है यारों। मुझे तो इस खजाना ब्लाग के बारे में पता ही नहीं था।

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  4. अनिल भाई... अब तो आ ही गए हो... इस ब्लॉग को रिवाइव करने का विचार बन रहा है...

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