Sunday, December 21, 2008

मज़ाक एक गंभीर अवधारणा का नाम है



कुछ कलाकार होते हैं सदाबहार किस्म के मगर साथ ही ये सदाबाहर किस्म के भी होते हैं क्योंकि ये रैट-रेस से बाहर रहते हैं और इसके बावजूद भी अपनी उपस्थिति दर्ज करवाते रहते हैं। ये जमात अकसर एफ़र्टलेस कलाकारों की होती है; इतने एफ़र्टलेस कि शायद ये बने ही सिर्फ़ इस काम के लिये हों और मैनें देखा है कि यह जो जमात है इनमें से ज़्यादातर ग़ैर-इरादतन फ़िल्मों में आ गए; ग़लती से या तुक्के से। वे तो कुछ और ही करने जा रहे थे मगर बीच में कहीं से निकलकर किसी फ़िल्म का कोई रोल उनके हिस्से आ गया। अकसर सोचता हूँ कि अगर फ़िल्में न होतीं तो इन जैसे लोग क्या करते। सोचकर अजीब लगता है कि अशोक कुमार हिमांशु राय के स्टूडियो में लैब-टैक्नीशियन थे। उन्हे मौका न मिलता तो क्या वे लैब-टैक्नीशियन ही रहते? संभव नहीं लगता। मेरे खयाल में अपने यहां अशोक कुमार पहले ऐसे अभिनेता रहे होंगे जो सिर्फ़ अपनी मौजूदगी से दर्शक को प्रभावित कर सकते थे मगर फिर भी नंबर एक की दौड़ जैसे फ़िल्मी खेलों से बाहर रहते थे। मंटो ने अपने संस्मरणों में दादा मुनि का खूब ज़िक्र किया है। दूसरी ओर प्राण भी हैं जो विलेन होकर भी लोगों के दिलों पर राज करते रहे। उनको अपने व्यक्तित्व के जादू को फ़िल्मों और फ़िल्मों से बाहर सिद्ध करने के लिये गुड्डी जैसी फ़िल्मों का मोहताज नहीं रहना पड़ा।

उधर हालीवुड में रोबिन विलियम्स चंद उन कलाकारों में से हैं जिनकी फ़िल्म में मौजूदगी मेरे लिए पर्याप्त है हालांकि यह भी सच है कि मुझे उनकी कुछ फ़िल्में पसंद नहीं आईं। इसके बावजूद उनके नाम पर मैं फ़िल्म देखने के लिये बैठ सकता हूँ। पेशे से स्टैंड-अप कामेडियन रहे इस व्यक्ति ने फ़िल्मों की ओर थोड़ा देर से ध्यान दिया मगर पर्याप्त फ़िल्में की हैं।

परंपरागत कामेडी से परे विलियम्स उस कोटि के कामेडियन हैं जिनके ह्यूमर और प्रत्युन्नमति की मिसाल दी जा सकती है। उनके बारे में अकसर कहा जाता है, “A fellow with the inventiveness of Albert Einstein but with the attention span of Daffy Duck”।

वह चाहे “राबिन विलियम्स लाइव आन ब्राडवे” हो या उससे पहले के स्टैड अप टूर शो “एन ईवनिंग विद राबिन विलियम्स”, इन प्रोग्रामों की टिकट अकसर बिक्री शुरु होने के तीस मिनट में ही बिक जाती थी। यदि उन्हे स्टेज सौंप दिया जाए तो वे सिर्फ़ अपने ह्यूमर से दर्शकों को घंटों हंसाकर बेहाल कर सकते हैं। फ़िल्मों में भी अकसर वे अपने डायलोग्स को इंप्रोवाइज़ करते हैं जोकि हमेशा फ़िल्म और चरित्र को बेहतर बनाता है।

उनकी फ़िल्म "पैच एडम्स" में हंटर के किरदार को कौन भूल सकता है? वह विकट सुपर इंटेलिजैंट युवक जो डाक्टरी जैसे पेशे के मानी बदल देना चाहता है और परफ़ार्मिंग आर्ट जैसे आयाम जोड़कर इस पेशे को ज़्यादा ह्यूमेन बनाना चाहता है। मैं इस फ़िल्म को देखने के बाद अगले कई महीनों तक इस फ़िल्म के प्रभाव में रहा। दो-तीन बार यह फ़िल्म खरीद चुका हूँ और गुम भी कर चुका हूँ। हैरानी होती है कि इस फ़िल्म की चर्चा क्यों नहीं होती। मुन्नाभाई देखने के बाद मेरी तात्कालिक टिप्पणी थी कि मुन्नाभाई की स्क्रिप्ट इस फ़िल्म से प्रभावित है और अपनी इस राय पर मैं आजतक कायम हूँ। पैच एडम्स इसी नाम के एक मशहूर डाक्टर के जीवन और घटनाओं पर बनाई गई फ़िल्म है। इस डाक्टर ने गेसुंडहाइट इंस्टिट्यूट नाम का मशहूर अस्पताल भी बनाया जिसके बारे में कुछ जानकारी विकिपेडिया पर उपलब्ध है। इसके अलावा भी विलियम्स ने कई अद्भुत फ़िल्में दी हैं जैसे “बाईसेंटिनल मैन”, “वन आवर फ़ोटो”, “गुड मार्निंग वियतनाम”, “मिसेज़ डाउटफ़ायर”, “गुडविल हंटिंग” और “इन्सोम्निया”।

विलियम्स के ह्यूमर के चलते उनकी कई टिप्पणियाँ बहुत मशहूर हुई हैं जिनपर नज़र डाली जाए तो लगता नहीं कि ये बातें एक एक्टर कह रहा है:

1. God gave men both a penis and a brain, but unfortunately not enough blood supply to run both at the same time.
2. We had gay burglars the other night. They broke in and rearranged the furniture.
3. Reality is just a crutch for people who can't cope with drugs.
4. My God! We've had cloning in the South for years. It's called cousins.
5. Politics: Poli a Latin word meaning many; and tics meaning bloodsucking creatures.
6. Do you think God gets stoned? I think so… look at the platypus.
7. Why do they call it rush hour when nothing moves?
8. If women ran the world we wouldn't have wars, just intense negotiations every 28 days.
9. In England, if you commit a crime, the police don't have a gun and you don't have a gun. If you commit a crime, the police will say Stop, or I'll say stop again.
10. People say satire is dead. It's not dead; it's alive and living in the White House.
11. Ah, yes, divorce ... from the Latin word meaning to rip out a man's genitals through his wallet.
12. Reality: What a concept!
13. The Statue of Liberty is no longer saying, Give me your poor, your tired, your huddled masses. She's got a baseball bat and yelling, You want a piece of me?
14. Having George W. Bush giving a lecture on business ethics is like having a leper give you a facial, it just doesn't work!
15. We Americans, we're a simple people . . . but piss us off, and we'll bomb your cities.
16. The Second Amendment says we have the right to bear arms, not to bear artillery.
17. Cricket is basically baseball on valium.
18. The Russians love Brooke Shields because her eyebrows remind them of Leonid Brezhnev.
19. When the media ask George W. Bush a question, he answers, 'Can I use a lifeline?'

राबिन विलियम्स लाइव आन ब्राडवे की एक बानगी यहां देखिये।

Monday, December 15, 2008

पेदार - माजिद मजीदी


मुझे माजिद मजीदी की तीन फ़िल्में देखने का मौका मिला है और हर बार नरेट करने की उनकी शैली स्तब्ध कर देने वाली लगी। तीनों फ़िल्में जो मैनें देखीं, बारान, चिल्ड्रन आफ़ पैराडाइस और पेदार, उनमें शैली के अलावा भी कुछ समानताएं मुझे दिखाई दीं। पहले तो यही कि हर कहानी में एक लड़का दुनिया से अपना तालमेल बैठाने के लिये संघर्ष कर रहा है। उसके शेड भले ही हर बार अलग अलग हैं मगर समानता यह है कि उसे ठीक ठीक यह पता है कि उसका संघर्ष दुरुह है और वह इसके लिये कटिबद्ध है। दूसरी ओर मजीदी की फ़िल्में ईरानी जीवन में झांककर जटिल मानवीय, सामाजिक और पारिवारिक संबंधों की पड़ताल करती हैं।
पेदार का मेहरुल्लाह एक शौव्निस्ट चेहरा है, जिसे अपनी माँ का एक पुलिसवाले से शादी कर लेना खटक रहा है। हालांकि वह अभी 13-14 साल का ही है मगर उसमें ये संस्कार पड़ चुके हैं कि वही घर का मुखिया है इसलिये उसकी माँ को ऐसा करने का हक नहीं था। इस सोच के लिये खुराक वह समाज देता है, जिसमें वह बड़ा हो रहा है। आगे जाकर यह संस्कार फिर ऐसा समाज गढ़ता है जहाँ स्त्री सेकेंडरी है; सबसे पहले पुरुष ही है और यही संस्कार है जिसके चलते वह शहर में नौकरी करने जाता है कि वह कुछ पैसे कमाकर ला सके और घर चलाने में सुभीता हो। मगर मजीदी फ़िल्म में इस स्तर तक नहीं जाना चाहते।
संबंधों की पड़ताल करने के लिये मजीदी नगण्य लोगों की जिंदगी की छोटी-छोटी घटनाओं को उठाते हैं। वे सामाजिक कुरीतियों या धर्म जैसे बड़े मुद्दों को नहीं छूते। उनके चरित्र भी ठेठ ईरानी हैं जिनकी ज़िंदगी और जो स्वंय बाहरी दुनिया के लिये संभवत: दूसरी दुनिया की बातें हों मगर जब वही बाहरी लोग कहानी के थीम तक पहुँचते हैं तो मजीदी की अप्रोच वैश्विक लगने लगती है। ऐसा इसलिये क्योंकि मनुष्य देशकाल और भौगोलिकता के परे व्यवहारगत रूप में और अपने गुणों-दुर्गुणों के साथ एक ही सा है; जिसे हम दरअसल ग्रे कैरेक्टर कहते हैं और मजीदी इन्ही चरित्रों के आधार पर अपनी बात कहते हैं।
उनके यहाँ जो चरित्र हैं, चाहे वह मेहरुल्लाह हो, लतीफ़ हो, अली हो या ज़हरा, इस सभी के द्वंद बेहद बेसिक हैं। न तो उनका सीज़र होने का दावा है और न ही वहाँ चाँद की आकांक्षा है। उनके जीवन में नाटकीयता ग़ायब है या यूँ कहें कि उनकी ज़िंदगी के जिस हिस्से को मजीदी पकड़ते हैं वह इतना साधारण है कि उसे एक घटना का नाम देना भी बड़बोलापन होगा। यही मजीदी की विशेषता भी है कि 70mm के परदे पर वे दर्शक को यह महसूस नहीं होने देते कि उसे उंगली पकड़कर वे अपने साथ उन आम लोगों की आम सी ज़िंदगी के बेहद नज़दीक ले गए हैं, इतना नज़दीक कि आप हाथ बढ़ाकर उन चरित्रों को छू सकते हैं। हालीवुड या बालीवुड के उलट यह नज़दीकी इतनी रियलिस्टिक है कि इसे उस समाज का प्रामाणिक दस्तावेज़ भी माना जा सकता है। मजीदी की फ़िल्में रियलिज़्म के बेहद नज़दीक होकर भी अपनी कलात्मक उत्कृष्टता बचाए रखती है और सिर्फ़ डाक्युमेंटरी बनकर नहीं रहती। वे फ़िल्म और डाक्युमेंटरी के बीच एक नया स्पेस पैदा करती हैं।
दूसरी ओर मजीदी का कैमेरा दुनिया को एक बच्चे के नज़रिये से देखता है, जिसके लिये छोटी से छोटी घटना भी विशेष है और उसको दिनों तक उलझाए रखने के लिये पर्याप्त। मेहरुल्लाह का संघर्ष अपने सौतेले बाप से अपनी माँ और छोटी बहनों को वापस पाने का है जो उसको दिनों तक उलझाए रखता है। उसका मानना है कि उसके सौतेले पिता ने उसकी माँ से शादी उसकी छोटी बहन के इलाज के खर्च के एवज में की। यह संघर्ष उसपर इस कदर हावी हो जाता है कि वह और कुछ भी सोच पाने में अक्षम हो जाता है। वह अपने विरोध और आक्रोश को व्यक्त करने के लिये कई तरीके अपनाता है और सौतेले बाप से, जोकि पुलिसवाला है, उसकी मुठभेड़ बार-बार होती है। पुलिसवाले का साबका इस तरह के विरोधों और लोगों से होता रहता है इसलिये वह निश्चिंत है। बावजूद उसके मेहरुल्लाह को अपनाने की कोशिश के उन दोनों के बीच संघर्ष बढ़ता जाता है और अंतत: पुलिसवाला उसे शहर जाकर पकड़ लेता है। शहर से लौटते हुए भी पुलिसवाले की दिक्कतें कम नहीं होतीं। मेहरुल्लाह बार-बार भागने की कोशिश करता है मगर अनुभवहीन होने के कारण पकड़ा जाता है। उस चूहे-बिल्ली के खेल में वे अंतत: रेगिस्तान के बीच फ़ंस जाते हैं और पुलिसवाले की मोटरसाइकिल खराब हो जाती है। अंतत: पुलिसवाला यह जानते हुए कि मेहरुल्लाह में अभी भी कुछ ताकत बाकी है उसकी हथकड़ी खोल देता है और उसे अपनी जान बचाने को कहता है। मेहरुल्लाह को वहीं कुछ ऊँट दिखाई देते हैं। थोड़ा आगे जाकर उसे पानी का एक छोटा सा सोता भी मिल जाता है। वह अपने सौतेले बाप को किसी तरह वहां तक घसीटकर लाता है और दोनों पानी में औंधे मुँह गिर जाते हैं।
मजीदी अपनी फ़िल्मों को खास तरह से अंत तक लाते हैं। वहां भड़कीला सा “The End”, “La fin” या “They lived happily ever after” नहीं दिखता, बल्कि आखरी दृष्य पोएटिक होता है। दूसरी फ़िल्मों के अंत के बारे में मैं बाद में अलग से चर्चा करूंगा। पेदार में जब सौतेले बाप-बेटे पानी में औंधे पड़े होते हैं तो बाप की जेब से उसकी मेहरुल्लाह की माँ और बहनों के साथ खींची तस्वीर निकलकर बहती हुई मेहरुल्लाह के पास जाती है। लगभग मर चुके पुलिसवाले की उंगलियों की हरकत उसके पुनर्जीवित होने का संकेत देती है। यही संकेत तस्वीर के मेहरुल्लाह को छूने पर भी दिखता है। इस दृष्य से बाप-बेटे पहली बार एक-दूसरे से संवेदनात्मक रूप से जुड़ते दिखते हैं और बेहद सुंदर चाक्षुक काव्यात्मकता के साथ पुलिसवाला एक ओर मेहरुल्लाह की माँ और बहनों को उसे सौंप देता है और दूसरी ओर खुद भी उससे जुड़ जाता है।
अगर अंत की चर्चा की जाए तो आनंद फ़िल्म के अंत में हमें ऐसा ही देखने को मिलता है जब आनंद की आवाज़ के बंद होने के बाद आडियो की रील खुलकर तेज़ गति से घूमने लगती है और आनंद के मुक्त हो जाने को दर्शाती है। मजीदी की हर फ़िल्म अपने अंत के कारण दर्शक पर ज़्यादा देर तक हावी रहती है।

Thursday, December 11, 2008

मॉन्टी पाइथन एन्ड द होली ग्रेल



मॉन्टी पाइथन समूचे यूरोप में आज भी एक कल्ट का नाम है. सत्तर के दशक में युवा हुई पीढ़ी के लिए इस ग्रुप की फ़िल्में और टीवी शोज़ रचनात्मकता और परम्परा से विद्रोह का पर्याय हुआ करते थे. १९६९ से १९७४ के दौरान यह ग्रुप ब्रिटिश टीवी की जान हुआ करता था. मॉन्टी पाइथन्स फ़्लाइंग सर्कस नाम के कॉमेडी शो के माध्यम से इन हरफ़नमौला युवा रचनाकारों ने टेलीविज़न संसार पर राज किया.

ग्राहम चैपमैन, जॉन क्लीज़, टेरी जिलियम, एरिक आइडल, टेरी जोन्स और माइकेल पैलिन ने बहुत सालों बाद इस बात का खुलासा किया कि असल में उनकी रचनात्मकता को वर्जीनिया वूल्फ़ द्वारा शुरू किए गए स्ट्रीम ऑव कान्शसनेस नामक साहित्यिक आन्दोलन की तकनीकी बारीकियों ने ठोस बुनियाद मुहैया कराई. टेरी जिलियम के बनाए एनिमेशन्स का दॄश्यों के बीच बहुत चतुर इस्तेमाल भी इसी तकनीकी बारीकी का हिस्सा हुआ करता था.

ख़ैर, उनके बारे में ज़्यादा विवरण विकीपीडिया समेत तमाम वैबसाइट्स पर मिल सकते हैं. आज मैं उनकी बनाई मशहूर कॉमेडी फ़िल्म मॉन्टी पाइथन एन्ड द होली ग्रेल की चर्चा कर रहा हूं.



सम्राट आर्थर की गाथा पश्चिमी संस्कृति में उसी तरह घुली मिली है जिस तरह अपने यहां रामायण और महाभारत. साहित्य की तमाम विधाओं में इस गाथा को सतत महिमामंडित किए जाने की लम्बी परम्परा रही है.

मध्यकाल की इस रूमानी गाथा के अतार्किक आदर्शों की धज्जियां उड़ाती इस फ़िल्म का सम्राट आर्थर एक मसखरा और मूर्ख नज़र आता है जबकि आम जनता जब-जब नज़र आती है, उसके वक्तव्य बुद्धिमत्ता से भरे होते हैं. अपनी दैवीय शक्ति से भरपूर एक्सकैलिबर तलवार ले कर संसार को फ़तह करने निकला सम्राट अक्सर इन आम जनों के आगे निरुत्तर हो जाता है.

जब इस फ़िल्म को बनाने के लिए इस ग्रुप के पास कुल डेढ़ लाख पाउन्ड का बजट था जिसका बड़ा हिस्सा पिंक फ़्लॉयड और लैड ज़ैपलिन जैसे संगीतकारों ने चैरिटी कॉन्सर्ट्स करके इकठ्ठा किया था. सारी फ़िल्म स्कॉटलैंड में लोकेशन पर शूट की गई. इतनी बड़ी गाथा की कॉमेडी बनाने के लिए जाहिर है यह रकम बहुत कम थी. मध्यकाल की हर कहानी में सैकड़ों घोड़ों और हज़ारों सैनिकों को युद्धरत दिखाया जाना होता था. किराये पर घोड़े और कलाकार लेने के लिए कतई पैसा नहीं था.

अब मैं ज़्यादा लिखने के मूड में नहीं हूं.


यूट्यूब पर इस फ़िल्म के पहले दॄश्य को देखिये और आनन्दित होइये.



इस फ़िल्म को खोज बीन लें तो देखते हुए इसकी स्क्रिप्ट ज़रूर सामने रखें. एक भी शब्द छूट जाए या समझ में न आए तो मॉन्टी पाइथन्स की मूलभूत चीज़ आपसे छूट जाएगी: ब्रिटिश ह्यूमर. स्क्रिप्ट का लिंक.

यूट्यूब वाले दॄश्य की स्क्रिप्ट:

[wind]

[clop clop clop]

KING ARTHUR: Whoa there!

[clop clop clop]

SOLDIER 1: Halt! Who goes there?

ARTHUR: It is I, Arthur, son of Uther Pendragon, from the castle of Camelot. King of the Britons, defeator of the Saxons, sovereign of all England!

SOLDIER 1: Pull the other one!

ARTHUR: I am,... and this is my trusty servant Patsy. We have ridden the length and breadth of the land in search of knights who will join me in my court at Camelot. I must speak with your lord and master.

SOLDIER 1: What? Ridden on a horse?

ARTHUR: Yes!

SOLDIER 1: You're using coconuts!

ARTHUR: What?

SOLDIER 1: You've got two empty halves of coconut and you're bangin' 'em together.

ARTHUR: So? We have ridden since the snows of winter covered this land, through the kingdom of Mercea, through--

SOLDIER 1: Where'd you get the coconuts?

ARTHUR: We found them.

SOLDIER 1: Found them? In Mercea? The coconut's tropical!

ARTHUR: What do you mean?

SOLDIER 1: Well, this is a temperate zone.

ARTHUR: The swallow may fly south with the sun or the house martin or the plover may seek warmer climes in winter, yet these are not strangers to our land?

SOLDIER 1: Are you suggesting coconuts migrate?

ARTHUR: Not at all. They could be carried.

SOLDIER 1: What? A swallow carrying a coconut?

ARTHUR: It could grip it by the husk!

SOLDIER 1: It's not a question of where he grips it! It's a simple question of weight ratios! A five ounce bird could not carry a one pound coconut.

ARTHUR: Well, it doesn't matter. Will you go and tell your master that Arthur from the Court of Camelot is here.

SOLDIER 1: Listen. In order to maintain air-speed velocity, a swallow needs to beat its wings forty-three times every second, right?

ARTHUR: Please!

SOLDIER 1: Am I right?

ARTHUR: I'm not interested!

SOLDIER 2: It could be carried by an African swallow!

SOLDIER 1: Oh, yeah, an African swallow maybe, but not a European swallow. That's my point.

SOLDIER 2: Oh, yeah, I agree with that.

ARTHUR: Will you ask your master if he wants to join my court at Camelot?!

SOLDIER 1: But then of course a-- African swallows are non-migratory.

SOLDIER 2: Oh, yeah...

SOLDIER 1: So they couldn't bring a coconut back anyway... [clop clop clop]

SOLDIER 2: Wait a minute! Supposing two swallows carried it together?

SOLDIER 1: No, they'd have to have it on a line.

SOLDIER 2: Well, simple! They'd just use a strand of creeper!

SOLDIER 1: What, held under the dorsal guiding feathers?

SOLDIER 2: Well, why not?

मॉन्टी पाइथन्स ने कुल चार फ़िल्में बनाईं. आगे आपको उनकी बाकी फ़िल्मों के बारे में बताऊंगा.

Monday, December 8, 2008

400 ब्लोव्ज़


400 ब्लोव्ज़ के बारे में बहुत कुछ लिखा जा चुका है और ज़्यादातर इस फ़िल्म को एक बच्चे की त्रासदी घोषित किये जाने की तर्ज़ पर। यह ग़लत नहीं है मगर मुझे फ़िल्म का दूसरा पहलू भी नज़र आता है। जहां तक त्रासदी कहे जाने की बात है, यह इसलिये कि यह फ़िल्म प्रत्यक्षत: यही प्रेषित भी करती है। मुझे लगता है कि इस फ़िल्म के बारे में किसी ने दूसरी बार देखकर नहीं लिखा, एक ही बार देखकर इसकी समीक्षा कर डाली। पहली बार मुझे यह फ़िल्म एक अस्वीकार्य बच्चे की दु:खद और मूक त्रासदी ही लगी, मगर दूसरी बार देखते हुए मुझे इसमें मज़ा आने लगा और अंतोने के चरित्र में जो उछश्रंखलता है, वह वास्तव में फ़िल्म का मूल कथ्य लगने लगी। अंतोने से कई लोग अपने बचपन को रिलेट कर सकते हैं और शायद अंतोने बड़ा होकर जो बनेगा-बिगड़ेगा उससे भी अपने को रिलेट कर पाएँ। उसके बड़े होकर बनने-बिगड़ने की संभावना को फ़िल्म का अंत विस्तार देता है और दर्शक पर छोड़ देता है कि जहाँ फ़िल्म खत्म होती है उससे आगे वह उसे कैसे विज़्युलाइज़ करता है और कैसे विस्तार देता है। ज़ाहिर है यह विस्तार हर व्यक्ति की निजी सोच पर निर्भर करती है।
त्रूफ़ौ जैसे अंतोने को समंदर के किनारे लाकर छोड़ देते हैं उससे यह कहानी एक बच्चे के महज़ बनने-बिगड़ने की नही बल्कि कुछ कर पाने या कुछ न कर पाने की बन जाती है। समंदर जहाँ शुरु हो रहा है वहाँ धरती खत्म हो रही है; एक दूसरी दुनिया शुरु हो रही है। यह दुनिया क्या देती है अंतोने को और वह इससे क्या ले पाता है वह आपके सोचने के लिये मसाला है। साथ ही समंदर का किनारा अनंत और अनंत से उपजने वाली संभावनाओं का द्योतक भी है।
अंतोने, रेने और दूसरे तमाम बच्चे आए दिन शैतानियाँ करते हैं मगर अंतोने की गलतियाँ बार-बार पकड़ी जाती हैं। उसका अध्यापक और माँ उसे नाकारा समझते हैं और पिता की अपनी एक दुनिया है जिससे वह बाहर आने को ज़्यादा उत्सुक नहीं है, मगर यह उतना ग़लत नहीं लगता जितना माँ का उससे विलगाव और निराशा और अध्यापक और अंतोने को हैंडल/मिसहैंडल करने का तरीका।
मुझे अंतोने में शुरु से ही संभावनाएँ नज़र आती हैं। वह एक ऐसा बच्चा है जो बड़ों की दुनिया और उस दुनिया की बेवकूफ़ियों को समझता है और इससे कुछ-कुछ फ़ायदा उठाना भी सीख गया है। यह “ज्ञान” उसके आगे बढ़ने के दरवाज़े खोलेगा यह तय है। उसकी ग़लती इतनी भर है कि उसे यह “ज्ञान” उम्र से पहले हो गया है। इसका श्रेय उन्ही लोगों को है जो उसके सामने बड़ों की दुनिया परोस रहे हैं; जैसे अध्यापक की खीझभरी टिप्पणियाँ उसे अंतोने के सामने नंगा करती हैं और अंतोने उससे निर्लिप्त हो जाता है। इसी तरह वह अपनी माँ से भी निर्लिप्त हो जाता है जब वह उसे अपने एक सहकर्मी को चूमते हुए देखता है या यह पहले से मौजूद निर्लिप्तता का सिर्फ़ एक हिस्सा है। शायद इसीलिये वह इतनी सहजता से अपने पिता से पूछता है, “माँ चली गई है?” वह अपने माँ-बाप की लड़ाईयों का अकसर गवाह बनता है। जब उसकी माँ उसे कहती है कि अगर वह अपनी क्लास में बेहतर प्रदर्शन करेगा तो वह उसे एक हज़ार फ़्रेंक देगी मगर उसे अपने पिता से यह बात छुपानी होगी। ऐसे हर मौके पर वह बड़ों की दुनिया की दहलीज पर कदम रखता है और उसकी स्वतंत्र होने की इच्छा ज़ोर मारने लगती है। मुझे व्यक्तिगत तौर पर यह इच्छा उस त्रासदी से बड़ी लगती है जिसे त्रूफ़ौ हमारे साथ साझा कर रहे हैं क्योंकि पार्श्व में एक चरित्र का निर्माण होता दिखाई देता है। अगर वास्तविकता की बात करें तो त्रूफ़ौ जैसा उच्चकोटि का दिग्दर्शक हमारे सामने है।
अंतोने तब लाचार लगता है जब उसे चोरों और वैश्याओं के साथ पुलिस की गाड़ी में डालकर पेरिस से बाहर ले जाया जाता है। इस दृष्य को दो--तीन कोणों से दर्शाया गया है। पहले जालियों के पीछे अंतोने का चेहरा क्लोज़ अप में आता है और फ़िर प्रोफ़ाइल में अंतोने जाली से बाहर पीछे छूटते पेरिस और उसकी रंगीनियों (आज़ादी) को देखता है। इस दृष्य में अंतोने रोता है क्योंकि यह उसकी स्वतंत्रता का अतिक्रमण है। यह वह स्वतंत्रता है जिसके एवज में उसके हिस्से रोज़ की लताड़ आती है। यही स्वतंत्रता उसे तमाम विरोधों के बीच प्रसन्न रखती है और यही उससे छिन रही है मगर दूसरे कोण से देखें तो यह अंतोने के लिये उस अनिश्चित स्वतंत्रता का द्वार है, जिसके तत्व उसके स्कूल और दड़बे जैसे घर में ग़ायब हैं।

Tuesday, November 4, 2008

मैं कैलेंडर पर ज़िंदा रहूंगी, समय में कभी नहीं


मैंने हॉलीवुड अदाकारा मर्लिन मुनरो पर एक लेख लिखा था। तब नैट पर मुझे उसके बहुत सारे कोट्स मिले। मैंने उन्हें पढ़ा तो मुझे लगा कि इन कोट्स का यदि क्रम बदल दिया जाए तो ये मर्लिन के एकालाप की तरह लगेंगे। लिहाजा मैंने मर्लिन के ये कोट अनुवाद किए और उन्हें ऐसा क्रम दिया कि ये मुनरो की कहानी उसी की जुबानी लगे। तो पढ़िए मुनरो की छोटी-सी कहानी उसी की जुबानी।
मैं अपनी शादी की वजह से दुःखी नहीं थी लेकिन इससे मैं खुश भी नहीं थी। मैं और मेरे पति मुश्किल से ही एकदूसरे से बोल पाते थे। और यह सब इस वजह से नहीं था कि हम एकदूसरे से नाराज थे। हमारे पास कहने को कुछ नहीं था। मैं इस ऊबाऊपन से मर रही थी। मेरी पैसों में कतई दिलचस्पी नहीं थी, मैं तो बस वंडरफुल होना चाहती थी। करियर वंडरफुल था लेकिन एक ठंडी रात में उसे आप लपेट नहीं सकते थे। मैं कैलेंडर पर जिंदा रहूंगी, समय में कभी नहीं।
मैं जब बच्ची थी तब मुझे किसी ने कभी ये नहीं कि मैं सुंदर हूं। तमाम बच्चियों को कहा जाना चाहिए कि वे सुंदर हैं, वे सुंदर न हों तब भी। हॉलीवुड में किसी भी लड़की की प्रतिभा उसके हेयर स्टाइल से कम आंकी जाती है। आपका मूल्यांकन इस आधार पर होता है कि आप कैसी दिख रही हैं, इस पर नहीं कि आप असल में हैं क्या। हॉलीवुड ऐसी जगह है जहां आपको चुंबन के लिए हजार डॉलर्स मिल जाएंगे लेकिन आत्मा के लिए पचास सेंट्स भी नहीं। मैं यह जानती हूं औऱ मैं महंगा आफर ठुकरा देती हूं औऱ पचास सेंट्स का मंजूर कर लेती हूं।
मैं बिना फेस लिफ्ट कराए बूढ़ी होना चाहती हूं। मैं चाहती हूं मुझमें अपने उस चेहरे के प्रति भरोसेमंद रहने का साहस हो जिसे मैंने बनाया है। कभी कभी मुझे लगता है उम्रदराज होना टाला जा सकता है औऱ जवान रहते मर जाएं तो बेहतर। लेकिन तब आप अपनी जिंदगी पूरी नहीं करते। नहीं क्या? तब आप कभी भी अपने को पूरी तरह से नहीं जान पाएंगे।
सेक्स प्रकृति का हिस्सा है और मैं प्रकृति के साथ जाना पसंद करूंगी। मैं पिक्चर में नेचरल लुक को पसंद करती हूं। मैं उन लोगों को पसंद करती हूं जो एक या दूसरी तरह से महसूस करते हैं। यह उनकी भीतरी दुनिया को बताते हैं। वहां भीतर जो कुछ भी घट रहा है उसे देखना मुझे पसंद है। मेरी दिक्कत यह है कि मैं अपने आप से ही संचालित होती हूं। मैं एक कलाकार बनने की भरसक कोशिश करती हूं औऱ सच्ची भी। कभी कभार मैं महसूस करती हूं कि मैं एक पागलपन पर सवार हूं। मैं कोशिश करती हूं कि अपने भीतर का सबसे खरा हिस्सा बाहर आ सके और यह कितना मुश्किल है। ऐसा होता है कई बार जब मैं सोचती हूं कि मेरा जो कुछ भी है वह सब सच्चा है लेकिन कई बार यह सब आसानी से बाहर नहीं आता। मैं हमेशा यह छिपी बात सोचती हूं कि मैं नकली हूं।
मैं जानती हूं कि मेरा संबंध लोगों से है औऱ दुनिया से है इसलिए नहीं कि मैं प्रतिभाशाली हूं या कि खूबसूरत बल्कि इसलिए कि इसके अलावा मेरा किसी से कोई संबंध नहीं।
यह लोगों की आदत है कि वे मुझे ऐसे देखते हैं कि मैं एक व्यक्ति नहीं एक आईना हूं। वे मुझे देख ही नहीं पाते। सेक्स सिबंल बनना एक वस्तु बन जाना है। मैं वस्तु होने से नफरत करती हूं लेकिन मैं सेक्स सिंबल के बजाय किसी औऱ चीज का सिंबल बनना चाहती हूं।
सचाई यह है कि मैंने कभी किसी को बेवकूफ नहीं बनाया है, मैंने लोगों को स्वयं बेवकूफ बनने के लिए छोड़ दिया। उन्होंने कभी यह जानने की कोशिश ही नहीं की कि मैं कौन हूं औऱ क्या हूं? बावजूद इसके उन्होंने मेरे लिए एक चरित्र खोज लिया। मैं उनसे कभी बहस नहीं की। वे निश्चित ही किसी और को प्यार करते हैं जो मैं नहीं थी। जब उन्हें यह पता लगा तो उन्होंने मुझे दोष देना शुरू कर दिया कि हमें भ्रम में रखा गया है या हमें बेवकूफ बनाया गया। कुत्ते मुझे कभी नहीं काटते, सिर्फ मनुष्य काटते हैं।
जिंदगी में ऐसे पल आते हैं जब आपको लगता है कि आप किसी के साथ हैं औऱ यही काफी है। मैं उन्हें छूना नहीं चाहती। यहां तक कि बात तक करना भी। दोनों के बीच एक अहसास बहता रहता है। और तब आप कतई अकेले नहीं होते।
मैं एक औरत के रूप में नाकामयाब हूं। मेरा आदमी मुझसे बहुत ज्यादा अपेक्षाएं रखता है। यह इस वजह से है क्योंकि उन्होंने अपने लिए मेरी एक छवि बना ली है और मैंने खुद को एक सेक्स सिंबल बना लिया है। आदमी बहुत अपेक्षा रखता है मैं इस पर अपने को जिंदा नहीं रख सकती। कुछ लोग हमेशा आपके प्रति कठोर होंगे। यदि मैं कहूं कि मैं बतौर एक्ट्रेस विकसित होना चाहती हूं तो वे मेरे फिगर को देखते हैं। यदि मैं कहूं कि मैं अपने क्राफ्ट को विकसित करना चाहती हूं तो वे हंसने लगते हैं। मुझे लगता है वे यह अपेक्षा नहीं रखते है कि मैं अपने काम के प्रति संजीदा रहूं। यदि आप चाहते हैं कि कोई लड़की खुश रहे तो उसे वह सब करने दें जो वह चाहती है।
एक बेहतरीन अदाकारा होने का मुझे कोई वहम नहीं है। मैं जानती हूं मैं कितनी तीसरे दर्जे की अदाकारा हूं। मैं सचमुच महसूस करती हूं कि मुझमें टैलेंट नहीं है। यह वैसा ही जैसे मैं अंदर के सस्ते कपड़े पहनती हूं। लेकिन मेरे ईश्वर बता मैं कैसे सीखना, बदलना औऱ परिष्कृत होना सीखूं। एक एक्टर को बहुत संवेंदनशील वाद्य होना चाहिए। इसाक स्टर्न अपनी वॉयलिन का बहुत ध्यान रखते थे।
यह बहुत डरावना है कि मैं जिन तमाम लोगों को नहीं जानती वे मुझे लेकर कितने भावुक होते हैं। मेरा मतलब है कि यदि वे आपको जाने बगैर बहुत प्यार करते हैं तो यह भी तो हो सकता है कि वे ठीक इसी तरह आपसे नफरत भी कर सकते हैं।
गोएथे ने कहा था कि टैलेंट निजी कोनों में फलता-फूलता है। आप जानते हैं? यह सचमुच में सच है। एक एक्टर के लिए हमेशा अकेलेपन की जरूरत है औऱ अकसर लोग यह नहीं सोचते। यह आपके लिए एक निश्चित रहस्य होता है कि जब आप एक्टिंग कर रहे होते हैं तब उन पलों में पूरी दुनिया आप में होती है। मैं जब अकेली होती हूं मैं अपने को जमा करती हूं। करियर लोगों के बीच पैदा होता है, प्रतिभा अकेले में।
कृपाकर मेरी हंसी न उड़ाएं। मैं यकीन करती हूं कि मैं एक अभिनेत्री बनना चाहती हूं, अपनी इंटीग्रिटी के साथ एक अभिनेत्री। मैं सचमुच एक अदाकारा बनना चाहती हूं, एक कामोत्तेजक जीव नहीं। मैंने अपना नाम मर्लिन कभी पसंद नहीं किया। मैं हमेशा चाहती रही कि मुझे जीन मुनरो के नाम से पुकारा जाए लेकिन मुझे अंदाजा है कि इसके लिए अब कितनी देर हो चुकी है...
शोहरत यानी आप अपने को दूसरों की नजरों से देख रहे होते हैं लेकिन इससे भी ज्यादा मानीखेज यह है कि आप खुद अपने बारे में क्या सोचते हैं, रोज-ब-रोज की जिंदगी जीते हुए, जिंदा रहते हुए कि अब आगे क्या होगा...

Monday, October 20, 2008

उम्मीद की शक्ल के पीछे छिपी हुई एक और शक्ल




राहुल ढोलकिया की फिल्म परजानिया पर एक बेतरतीब-सा बयान
जो लोग अपने किसी बिछड़ चुके प्रिय का इंतजार करते हैं उनका चेहरा देखिए। समय चुपचाप करवट लेकर उनकी अभी अभी आई झुर्री में छिप गया है। वहां न धूप है, न छाया। आंधी में उड़ चुके हरेपन की हलकी रगड़ बाकी रह गई है। पहले वहां वसंत का कोई रंग था जो महकता था। अब वहां एक उभरी हुई नस है जिसमें खून की आवाजाही दिखाई देती है। वे अपने दोनों पैरों पर खड़े दिखाई देते हैं लेकिन ध्यान से देखें तो उनका एक पैर थक चुका है और दूसरे ने पूरे शरीर का वजन थाम रखा है। वहां घुटने के ऊपर एक कंपकपी है जो असल में सीने के दाएं हिस्से से निकल कर वहां टहल रही है। उनके प्रिय खो चुके हैं...

वे दोपहर की एक जलती हुई गली से निकलते हैं औऱ पाते हैं उनके सामने लंबी रात का चुप्पा गलियारा खुल गया है। वहां राहत देने के लिए कोई चंद्रमा नहीं। वे उसमें चलते हैं। उन्होंने एकदूसरे का हाथ थाम रखा है। हाथों में कई मौसम हैं, अब बारिश है। हाथों से कोई एक चीज चलती है औऱ उनकी आंखों में आकर रुक जाती है। अब धुंधलापन है। वे रूक गए हैं। दोपहर में देखी गई चीखें सूने गलियारे में उन्हें घेर कर चक्कर काटने लगती हैं। चीखों में शक्लें उभरती दिखाई देती हैं औऱ उन्हें लगता है वह अगले ही पल सचमुच उनके सामने होगा जो खो चुका है। शक्ल एक उम्मीद की शक्ल है। शक्लें हमेशा एक गहरी उम्मीद जगाती है, उसमें बहुत सारी उम्मीदें गड्डमड्ड हैं। एक उम्मीद हमेशा दूसरी उम्मीद के पीछे छिपी रहती है लेकिन रात होते होते वे पंजों में बदलकर उनका मांस नोंचने लगती हैं।

तारे मुझे हमेशा किसी का इंतजार करते लगते हैं, पलक झपकाते हुए। मैं आसमान में तारे देखता हूं। वे अपनी पलकें झपका रहे होते हैं। कभी कोई तारा टूटकर तेजी से अपनी गतिमान चमक दिखाता गायब हो जाता है। कई बार नहीं भी। इतने सारे तारे हैं कि एक का डूबना उन्हें और अकेला कर जाता है।

उनके प्रिय खो चुके हैं...

अपने प्रिय के इतंजार में वे अपनी धुरी पर घूमते हुए नींद में भी चक्कर काट रहे हैं। उनकी नींद के आकाश में उतरते पंखों की फड़फड़ाहट है।

कोई इनसे पूछे आहट के क्या मायने होते हैं?

आहट भी एक उम्मीद है, उम्मीद भी एक शक्ल। एक और उम्मीद की शक्ल के पीछे छिपी हुई एक और शक्ल।

Monday, October 6, 2008

गाव (The Cow)

ईरानी सिनेमा का नाम सुनते ही एक दृष्यबंध सामने खड़ा हो जाता है जिसमें कथ्य से लेकर चाक्षुकता तक बहुत ज़्यादा विविधता की संभावना बनती है और इस संभावना की वजह से अपेक्षा भी बनती है। यह हैरानी का विषय है कि सिनेमा, जिसपर हमेशा विकसित देशों का आधिपत्य रहा है, उसमें ईरान जैसे नगण्य देश ने अपनी जगह बना ली है और जैसे विश्व के लिए सत्यजित राय ही भारतीय आर्ट सिनेमा का चेहरा है, वैसा ईरान के साथ नहीं है। वहां एक से ज़्यादा फ़िल्मकार हुए हैं जिन्होनें सिनेमा जगत में अपनी पहचान बनाई है। इसकी वजह निश्चित तौर पर हालीवुड की तरह तकनीकी उत्कृष्टता नहीं, वरन कलात्मक श्रेष्ठता है।
एक समय खत्म हो सकने की कगार पर खड़े ईरानी सिनेमा ने विश्व सिनेमा में अपने लिये एक खास जगह बनाई है। यदि ईरानी सिनेमा को बचाने का श्रेय किसी को दिया जा सकता है तो वह है प्रसिद्ध ईरानी निर्देशक दारिउश मेहरजुइ और यदि यह श्रेय किसी फ़िल्म को दिया जा सकता है तो वह उनकी दूसरी फ़िल्म गाव (गाय) है। अताउल्ला खुमैनी द्वारा ईरान में फ़िल्में बनाने की आज्ञा दिये जाने के पीछे इस फ़िल्म का खुमैनी पर प्रभाव माना जाता है।
यह दूसरी फ़िल्म थी जिसे ईरान के शाह ने फ़ंड किया था। उद्देश्य था उजड़ रहे ईरानी सिनेमा को बचाना मगर गाव के बनते ही उसपर पाबंदी लगा दी गई। शाह का मानना था कि इस फ़िल्म से बाहरी दुनिया के मन में ईरान की ग़लत छवि बनेगी। फ़िल्म को चोरी से कई समारोहों में दिखाया गया और उसे तत्काल बहुत प्रसिद्धि मिली।
गाव को बनाने के लिये दारिउश को बहुत ही सीमित संसाधन दिये गए थे और इसका प्रभाव फ़िल्म में जहाँ-तहाँ दिखाई भी देता है मगर कलात्मक दृष्टिकोण से फ़िल्म में कोई ख़ामी नहीं आई है। फ़िल्म के कई दृष्यों को देखते हुए आप बार-बार महसूस करते हैं कि फ़िल्म चाक्षुक कविता बन पड़ी है या यूँ कहें कि ये दृष्य फ़िल्म से बाहर निकलकर बेहद आर्टिस्टिक पेंटिंग सरीखे लगते हैं। यदि आप इन दृष्यों के पार देखने की कोशिश करेंगे तो आपको वहाँ ईरानी जीवन-शैली सर्वत्र बिखरी दिखाई पड़ेगी।
फ़िल्म कई स्तरों पर संवाद की गुंजाईश बनाती है और हर संभावना को समझने के लिये ईरान के जीवन और इतिहास में झांकना शायद आवश्यक हो। हसन एक साधारण व्यक्ति है मगर जो चीज़ उसे विशेष बनाती है वह उसकी इकलौती गाय है। यह गाय उस उजाड़ और रेगिस्तानी गाँव की इकलौती गाय भी है और लोगों के कौतुहल का विषय भी।
कुछ समीक्षकों का मानना है कि गाव बनाते समय दारिउश पर इतालवी नेओरिआलिज़्म का प्रभाव था। कुछ इसे सही नहीं मानते। दारिउश का क्या कहना है, यह जानने से पहले इसके कारणों की ओर एक नज़र डाल लेना समीचीन होगा। दारिउश के पास यह फ़िल्म बनाने के लिये बहुत ही सीमित साधन थे। संभवत: यह एक कारण हो कि फ़िल्म में इतालवी नेओरिआलिज़्म का प्रभाव दिखाई देता हो या वे सचमुच ही इस फ़िल्म बनाने की इस विधा के प्रभव में रहे हों। कुछ समय पहले रिलीज़ हुई इस फ़िल्म की डीवीडी में दारिउश का एक इन्टरव्यु भी शामिल किया गया था जिसमें उन्होनें इतालवी नेओरिआलिज़्म के प्रभाव में यह फ़िल्म बनाए जाने की बात स्वीकार की है।
फ़िल्म में यत्र-तत्र कई चरित्र हैं जो कहानी के प्लाट के बाहर भी बहुत कुछ कहते हैं। इन सब-प्लाट्स में संभवत: कोई सामाजिक संदेश छिपा हुआ है। उजाड़ में खड़ा एक गांव जो अपने-आप में बेहद सीमित भी है और पूर्ण भी शायद रेनेसां से पहले के छोटे-छोटे दुनिया से कटे हुए समाजों की याद दिलाता है। दारिउश एक पिछड़े समाज की दकियानूसी को सामने लाने में छोटे-छोटे दृश्यों और संवादों का प्रयोग करते हैं। गाँव के लोग बैठकर हसन की गाय के बारे में चर्चा करते हैं और खिड़की से चाय लिये हुए हाथ नमूदार होता है। एक युवक एक पागल को गाँवभर के बच्चों के मनोरंजन का साधन बनाए रहता है। यह दकियानूसीपन आगे जाकर भय और अंधविश्वास तक जाता है। चौपाल पर बैठकर गाँव के बुज़ुर्ग तमाम तरह की आशंकाओं से व्यथित हैं जब बोलोरियों द्वारा फिर से गाँव में चोरी करने की बात सामने आती है। बोलोरी सिर्फ़ चोर नहीं हैं, वे समुद्री डाकुओं की तरह हैं जिन्हे कोई जानता नहीं है। वे रात के अंधेरे में आकर गाँव की सम्पत्ति पर अपना हाथ साफ करते हैं। वे एक ऐसी सत्ता हैं जो सीमांत पर मौजूद है, दिखती है मगर फिर भी मानव होने के गुण/दुर्गुण से परे हैं। फ़िल्म में वे हर समय भय के सबसे बड़े कारण के रूप में मौजूद रहते हैं।
हसन की गाय मात्र गाय होने से ऊपर की चीज़ है। सिर्फ़ नहलाने के लिये वह उसे गाँव से बाहर ले जाता है, उसके श्रंगार के लिये सामान खरीदता है, दो पत्नियों को छोड़कर वह गाय के पास ही सोता है। और तो और वह उसे लाड करते हुए उसके साथ चारा भी खाता है।
हसन की अनुपस्थिति में गाय जब मर जाती है तो पूरे गाँव में अफ़रातफ़री मच जाती है। तमाम अंधविश्वासों के बीच वे उसके मरने का कारण खोजने की कोशिश करते हैं। गाँव का सबसे समझदार माना जाने वाला इस्लाम भी इस बारे में उलझन में है। गाँव के लोग इसमें शैतान की बुरी नज़र का प्रभाव मानते हैं। गाँव की सभा में हसन से उसकी गाय के मरने की बात छुपाने पर चर्चा होती है और यह चर्चा अकसर बुद्धिमत्ता से परे की चर्चा होती है। गाय को अंतत: एक सूखे कुँए में डाल दिया जाता है। फ़िल्म में एक चरित्र है जिसके लिये गाँव और गाँव के लोग बौद्धिक स्तर पर पिछड़े हुए हैं। वह लफ़ंडर किस्म का एक आदमी है जो हर काम में अपनी टांग अड़ाता है मगर उसके तर्क काटने योग्य न तो मुखिया है न ही इस्लाम। यदि फ़िल्म में कोई राजनैतिक संदेश निहित है तो उसका एक छोर इस चरित्र पर जाकर ज़रूर मिलता है। वैसे मूल कहानी के लेखक ग़ुलाम हुसैन सईदी लेफ़्ट विचारधारा के लेखक थे।
अंतत: जब हुसैन गाय के ग़म में पागल हो जाता है और गाँव वालों की सारी कोशिशों के बावजूद भी संभल नहीं पाता तो इस्लाम के सुझाव पर गाँववाले उसे किसी अस्पताल ले जाने को तैयार हो जाते हैं। उन्हें यकीन नहीं कि अस्पताल वाले कुछ कर सकते हैं या नहीं मगर इस्लाम का मानना है कि वे “कुछ” तो कर ही पाएंगे।
बारिश के बीच जब हुसैन को बांधकर और लगभग घसीटकर ले जाया जाता है। रास्ते में उसके विरोध करने पर इस्लाम उसे सोटी से मार-मारकर घसीटता है। यह गाँववालों की हुसैन के पागलपन से उपजी खीझ और निराशा की परिणिति है जिससे वे खुद भी स्तब्ध हैं। हुसैन अंतत: पहाड़ से गिरकर मर जाता है।

दारिउश ने फ़िल्म में छायांकन पर काफ़ी मेहनत की है और इसका प्रभाव शेड्स और छायाओं के सामंजस्य के रूप में दिखाई देता है मगर अफ़सोस कि जिस कैमरा से काम लिया गया था वह कामचलाऊ क्वालिटी का था और शायद फ़िल्म की मूल प्रति को सहेजकर नहीं रखा गया था। डीवीडी में उपलब्ध प्रिंट में छायांकन का चमत्कार क्वालिटी की वजह से खत्म हो गया है, फिर भी उनकी उत्कृष्टता को नकारा नहीं जा सकता।

Monday, September 29, 2008

द बर्मीज़ हार्प (The Burmese Harp)



"बर्मा की मिट्टी लाल है
और लाल हैं इसकी चट्टाने
"

यह लाली ध्वंस की, युद्ध की है जो इस कहानी के साथ शुरू होकर अंत तक साथ रहती है। कुछ तो ताकियामा मिचियो लिखित युद्ध-विरोधी बाल-उपन्यास होने के कारण और कुछ कोन इचिकावा के इस उपन्यास की संवेदनशील व्याख्या के कारण फ़िल्म The Burmese Harp किसी भी कोण से एक युद्ध-आधरित फ़िल्म नहीं लगती। संभवत: फ़िल्म का प्रारूप तैयार करते समय इचिकावा के दिमाग में यह स्पष्ट था कि उन्हें युद्धरत मनुष्य के मानवीय पक्ष को उजागर करना है।
फ़िल्म में मानवीय संवेदनशीलता को प्रस्तुत करने के लिये हार्प एक प्रतीक है। इसके अलावा पूरी फ़िल्म में ही युद्ध के दृश्यों और उसकी भयावहता को दिखाने के लालच से इचिकावा बचते रहे हैं। बर्मा में भटक गई एक टुकड़ी, जो जापान लौटने की हरसंभव कोशिश कर रही है, जब थककर जंगल में सुस्ताने के लिये लेटती है तो एक-एक जवान के चेहरे से विशाद और निराशा झरती है। ऐसे हर मौके पर वे उदासी से उबरने के लिये “हान्यू नो यादो” (देश, प्यारे देश) गाते हैं। जवानों के भीतर इस गीत को स्पंदित करता है मिज़ुशिमा का हार्प-वादन, जोकि करुणा, आशा और रूदन के बीच कहीं कानों में बजता है और अज्ञेय की इन पंक्तियों जैसा कुछ चारों ओर गूँजने लगता है:
अभी न हारो अच्छी आत्मा
मैं हूँ, तुम हो
और अभी मेरी आस्था है।


टुकड़ी का कैप्टन इनोये खुद एक संगीत-प्रेमी और संगीत-विशारद है और संगीत को उसने अपने सैनिकों में इस तरह घोल दिया है कि जहां हर क्षण मरने का डर उनके सिर पर जमा रहता है वहीं संगीत उनके कंधों पर जीवन-जागरण की तरह विद्यमान रहता है। यह संगीत ही है जिसने युद्ध की भयावहता के बीच भी इन लोगों में, जोकि लम्बे अरसे से अपने परिवार और देश से दूर हैं, भावनाएं बचाए रखी हैं। वे युद्धकाल के पारंपरिक तरीके छोड़कर एक-दूसरे को संकेत देने के लिये भी गाते हैं, हार्प का इस्तेमाल करते हैं। मिज़ुशिमा एक बर्मी का रूप धर लेता है और धोती लपेटकर आगे की टोह लेने सिर्फ़ हार्प लेकर निकल पड़ता है।
एक गांव में जब इस टुकड़ी को फसाने के लिये जाल बिछाया जाता है और इसका आभास होने पर घिरे होने की अनभिज्ञता ज़ाहिर करने के लिये वे गाते हैं और मिज़ुशिमा हार्प पर संगत करता है तो ब्रिटिश टुकड़ी में भी वही भावनाएं प्रवाहित होने लगती हैं जो इस जापानी टुकड़ी में हो रही हैं। संगीत मानवीय सूत्र बन जाता है और ब्रिटिश जवान इनके सुर में अपना सुर मिला देते हैं।




ापान की हार के फलस्वरूप सैनिकों की यह टुकड़ी आत्मसमर्पण कर देती है और मिज़ुशिमा को पहाड़ की चोटी पर युद्धरत एक और जापानी टुकड़ी के पास युद्ध रोककर आत्मसमर्पण करने का संदेश देने के लिये भेजा जाता है। वह सिर्फ़ अपना हार्प लेकर जाता है और अपनी ही साथी टुकड़ी की गोलाबारी से बचते हुए उनतक पहुँचता है।



इस टुकड़ी और मिज़ुशिमा के बीच संवाद में एक मौलिक अंतर स्पष्ट दिखता है। यह अंतर है दूसरी टुकड़ी की युद्ध-मानसिकता का। वे सभी युद्ध से इतना ग्रसित हैं और युद्ध बाहर से ज़्यादा उनके भीतर इतना पैठ चुका है कि मिज़ुशिमा की तमाम कोशिशों के बावजूद वे आत्मसमर्पण करने को राज़ी नहीं होते और अंतत: मारे जाते हैं।
इधर मुदोन भेजी जा चुकी कैप्टन इनोये की टुकड़ी मिज़ोशिमा के न लौटने पर परेशान होती रहती है मगर उनके अंदर कहीं भरोसा है कि मिज़ोशिमा ठीक है। मिज़ोशिमा को एक बौद्ध भिक्षु बचा लेता है। भिक्षु के वेश में मुदोन जाते हुए जब मिज़ोशिमा इधर-उधर बिखरी जापानी सैनिकों की लाशें देखता है तो फ़िल्म में एक सैनिक का मानवीय पक्ष अपने चरम के साथ उपस्थित होता है। मिज़ोशिमा मन ही मन ठान लेता है कि सभी लाशों का अंतिम संस्कार करना उसका मानवोचित कर्तव्य है और वह इसमें जुट जाता है। मुदोन पहुँचकर भी वह अपनी टुकड़ी से नहीं मिलता बल्कि दीक्षा लेकर अपने अभियान में जुट जाता है। उसकी टुकड़ी और कैप्टन का यह विश्वास कि वह जीवित है उन सभी घटनाओं के क्रम से और भी अधिक दृढ़ हो जाता है जब या तो वे मिज़ोशिमा को भिक्षु के रूप में या उसके हार्प-वादन को गाहे-बगाहे मुदोन में पहचान लेते हैं।
मिज़ोशिमा की अनवरत चुप्पी और अपनी पहचान छिपाने की कोशिशें हमारे सामने इचिकावा की योग्यता को उजागर करती हैं। बिना प्रत्यक्ष संवाद के वह जिस तरह अपनी प्रतिबद्धता और आस्था अपने मिशन में दर्शाता है वह कैप्टन के फ़िल्म के अंत में सैनिकों के सामने मिज़ोशिमा का पत्र पढ़ने से भी पहले दर्शक के सामने उजागर हो जाती हैं। इचिकावा का चमत्कार फ़िल्म में पात्रों के अभिनय में स्पष्टत: दिखाई देता है चूंकि यह अभिनय कहीं भी सायास नहीं नज़र आता। मिज़ुशिमा का एक सैनिक से एक भिक्षु में परिवर्तन अनायास या नाटकीय नहीं है। यह तथ्य एक गुण की तरह उसकी पूरी टुकड़ी में पहले से ही गाहे-बगाहे दिखता रहता है और परिस्थितियाँ मिज़ोशिमा को ऐसा सशक्त कदम लेने और उसपर बने रहने के लिये प्रेरित भी करता है। साथी सैनिकों द्वारा भिक्षु मिज़ुशिमा को लौट आने के लिए प्रेरित करने के लिये “हान्यू नो यादो” गाने और मिज़ुशिमा द्वारा अपनी पहचान उजागर करते हुए हार्प में संगत करने पर एक और नाटकीय सक्षमता प्रकट होती है। वह यह कि हार्प के द्वारा जवाब देते हुए मिज़ोशिमा यह भी कह रहा है कि अब मैं नहीं लौटूँगा।
फ़िल्म का सिनोप्सिस देने से मैं बच रहा हूँ क्योंकि मेरा प्रयास सिर्फ़ फ़िल्म के बारे में अपने विचार साझा करने से है और फ़िल्म की व्यक्तिगत व्याख्याओं पर संवाद आरंभ करने से है। ऊपर जो भी लिखा है उसमें कहानी सिर्फ़ उतनी भर ही आई है जितनी अपने विचार प्रेषित करने के लिये मुझे ज़रूरी लगी इसलिये मात्र इतने को ही कहानी न समझ लें। घटनाओं का क्रम आगे भी बढ़ता है और कहानी इससे भी अधिक विस्तार से चलती है।

Monday, September 22, 2008

पहली पोस्ट

सिर्फ एक विचार कि फ़िल्म जैसे उत्कृष्ट कला-माध्यम पर भी चर्चा होनी चाहिये यूँही बैठे-बैठे आ गया। साल-दो साल पहले विश्व सिनेमा एकत्र करना शुरु हुआ जोकि हालांकि बहुत मुश्किल काम है मगर इन्टरनेट की सहायता से काफी कुछ इकठ्ठा कर पाया हूँ।
अभी कल ही अपना यह विचार कि, सिनेमा माध्यम पर क्यों न ब्लोग के जरिये एक सिलसिला शुरु किया जाए जहाँ सिनेमा की समझ रखने वाले लोगों को प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से जोड़ा जाए, अपने एक मित्र के सामने रखा। हम अक्सर फ़िल्मों पर चर्चा किया करते हैं हालांकि उनकी शुरुआत हुए ज़्यादा समय नहीं बीता है। वे इस विचार से प्रभावित हुए मगर समयाभाव के कारण उन्होनें फिलहाल के लिये अपनी असमर्थता जताई। मुझसे इंतज़ार हुआ नहीं और सोचा ब्लोग तो बना ही लेना चाहिये, ब्लोग पर पोस्ट चाहे मुल्तवी हो जाए, ठीक वैसे ही जैसे किताब खरीद लो, पढ़ना चाहे टलता रहे।
तो यह पोस्ट इस विचार की पहली किस्त है।